Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
सुतीय आश्वासः
३०१ क्षारोवधिरिव सुधियां चण्यासजलाशयोपमा कृत्तिनाम् । मरुमालकूपकापः सतां च सव देव सांप्रत सचिवः ॥२१॥ नरोत्तम रमा रामाः संमामे च प्रयागमः ! पामरोदारनामार्य पावत्तावत्कुतस्तव ॥२२०॥ नटा विटा किरायाश्च पट्टयाचाटतोस्कटाः । सचिचे सत चेष्टन्ता कटके प्रकर्यश्रयः ॥२२१॥ पौष नृपतिपुत्री मन्त्री पौष यन्न कविरेषः । यत्रषोऽपि च विद्वांस्तत्र कथं सुकृतिनां वासः ॥२२॥ पण्डिसवैतनिकेन - धर्मरुभूमकेतुर्विद्वज्जनहंसनीरवारावः। स्वामिश्रीनलिनीन्दुमित्रोपराहुरेष तव मन्त्री ॥२२३ ॥
तमसो मनुष्यरूपं पापस्य नराकृतिः कलेनु स्वम् । पुंस्त्वमिव पातकस्य ध भवनेऽभूत्ता नृपामात्यः ॥ ९२४॥ राजन् ! आपका मन्त्री इससमय विद्वानों के लिए उसप्रकार हानिकारक है जिसप्रकार लवण-समुद्र का खारा पानी विद्वानों के लिए हानि पहुँचाता है और जिसप्रकार चाण्डालों के तालाब का पानी पुण्यवान् पुरुषों द्वारा अग्राह्य (पीने के प्रयोग्य) होता है उसीप्रकार आपका मन्त्री भी पुण्यवान पुरुषों द्वारा अग्राम-समीप में जाने के अयोग्य है एवं सजन पुरुषों के लिए मरुभूमि पर स्थित हुए चाण्डाली के कूप (एँ) के सदृश है। अर्थात्---जिसप्रकार सज्जनपुरुष प्यास का कष्ट उठाते हुए भी मरुभूमि पर वर्तमान चाण्डाल कुए का पानी नहीं पीते उसीप्रकार सज्जनलोग भी दरिद्रता का कष्ट भोगते हुए भी जिस मन्त्री के पास धन-प्राप्ति की इच्छा से नहीं जाते' ।। २१९ ।। हे मानवों में श्रेष्ठ राजन् ! जब तक यह 'पामरोदार' नामका मन्त्री बापके राज्य में स्थित है. तब तक आपके लिए धनादि लक्ष्मी, त्रियाँ व युद्धभूमि में विजयश्री की प्राप्ति किसप्रकार होसकती है ? अपितु नहीं होसकती ।। २२० ।। हे देव ! आपके उक्त मन्त्री के रहने पर सेना-शिविर में नर्तक, पिट, किराट (दिन दहाड़े चोरी करनेवाले साक) और बहुत निन्द्य वचन बोलकर वकवाद करने से उत्कट प्रकट रूप से धनाढ्य होते हुए प्रवृत्त होय ॥२२१ ।। हे राजन ! आपके जिस राज्य में उक्त 'पामरोदार' नाम का राजपुत्र, मन्त्री, कवि और विद्वान मौजूद है, उसमें विजनों का निवास किसप्रकार होसकता है ? अपि तु नहीं होसकता ।। २२२ ।।
हे राजन् ! 'पण्डितवैतण्डिफ नाम के महाकवि ने निम्नप्रकार रहोकों द्वारा आपके मन्त्री की कद्र मालोचना की है-हे राजन् ! आपका यह पामरोवार' नामका मन्त्री धर्मरूप वृक्ष को भस्म करने के लिए अग्नि है। अर्थात्-जिसप्रकार अग्नि से वृक्ष भस्म होते हैं उसीप्रकार इसके द्वारा भी धर्मरूप पृष भस्म होता है और विद्वज्जनरूपी राजहँसों के लिए मेघ गर्जना है। अर्थात-जिस प्रकार राजहंस बाँदलों की गर्जना श्रवण कर मानसरोवर को प्रस्थान कर जाते हैं उसीप्रकार आपके पामरोदार मन्त्रीके दुष्ट पर्ताव से भी विद्वान लोग दूसरी जगह चले जाते हैं एवं भापकी लक्ष्मीरूपी कमलिनी को मुकुलित या म्लान करने के लिए चन्द्र है। अर्थात्-जिसप्रकार चन्द्रमा के सदय से कमलिनी मुकुलित या म्लान होजाती है उसीप्रकार आपके 'पामरोवार' मंत्री के दुष्ट वर्ताव से आपकी राज्यलक्ष्मी म्लान (क्षीण) हो रही है तथा मित्ररूपी सूर्य के लिए राष्ट्र है। अर्थात्-जिसप्रकार राह सर्थ का प्रकाश आच्छादित करता हुआ उसे क्लेशित करता है उसीप्रकार आपका उक्त मंत्री भी मित्रों की वृद्धि रोकता हुया उन्हें क्रोशित करता है ।।२२३।। हे राजन् ! आपके राजमहल में ऐसा पामरोवार' नाम का मन्त्री हुआ है, जो कि मनुष्य की आकृति का धारक अन्वेरा या अशान ही है और मानव-श्राकार का धारक पाप ही है एवं उसकी (मनुष्य की) भूति का धारक कलिकाल ही है तथा उसकी आकृति को धारण करनेवाला
१. उपमालंकार । २. आक्षेपालंकार । ३. समुच्चयालंकार । ४. आक्षेपालंकार ।
प्रस्तुत शामकार महाकवि का कस्थित नाम-सम्पादक । ५. रूपकालंकार 1