Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकचम्पूकाये
हे वत्स दर्ज किमम्य माये कः सांप्रतं नाकुचितो निवासः । वदामि मातः सोऽस्ति नूनं यः पामरोवार गिराकराः १२ सरस्वती/तुङगेनाप्यत्र मृतमारणमाचरितम् —
स्त्रयं कर्ता स्वयं इस स्वयं वक्ता स्वयं कविः । स्वयं नटः स्वयं भण्डो मन्त्री विश्वातिस्तव ॥ २२६॥ आस्तिक हास्तिकसिंहो नास्तिकसौवस्तिकस्तमः स्तूपः । दैष्टिक सृष्टिकृतान्तो नरदैत्यस्तव नृपामात्यः ॥ २२७ ॥ देवववाहाला देवद्रोहाच्च देवनिर्माता । अहह सरः खलु प्रति धर्मपरः पामरोदारः ॥२२८ ॥
ब्रह्महत्या व ऋषिहत्या आदि पातक ही है ||२२४|| हे खलत्व पुत्र ! और हे माता माया ! ( परवञ्चनारूप माया ! ) इस समय हम दोनों का ( मायारूप माता और उससे उत्पन्न हुए दुष्ट वर्तावरूप पुत्र का ) योग्य निवास स्थान कौन है ? हे माढा ! सुन मैं कहता हूँ - वह 'पामरोदार' नाम का दुष्ट चिह्नवाला मन्त्री हम दोनों का निवास स्थान है ||२२||
पुनः 'शङ्खनक' नामका गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है--कि हे राजन् ! 'सरस्वती लुङग* ' नाम के महाकषि ने भी आपके इस मन्त्री के विषय में मृतमारण ( मरे हुए को मारना ) किया है। अर्थात् — उसकी निम्नप्रकार विशेष कटु आलोचना की है
हे राजन् ! आपका मन्त्री स्वयं ही निन्द्य कर्म करनेवाला, स्वयं धर्म-कर्म नष्ट करनेवाला, स्वयं बकनेवाला, स्वयं कविता करनेवाला और स्वयं नट एवं स्वयं भाँढ ( हँसोदा ) होने के कारण विश्वाकृति ( बिरूपक दवान – कुक्कुर सरीखा ) है ||२२६|| हे राजन् ! आपका मन्त्री आस्तिक ( पुण्य, पाप व परलोक की सत्ता - मौजूदगी माननेवाले धार्मिक पुरुष ) रूपी इस्ति-समूह को विध्वंस करने के लिए सिंह है । अर्थात्-जिसप्रकार सिंह हाथियों के समूह को नष्ट कर देता है उसीप्रकार आपका मन्त्री भी धर्मात्मा पुरुष रूपी हाथियों के समूह को नष्ट करता है और नास्तिकों (पुण्य, पाप व परलोक न माननेवाले अधार्मिक पुरुषों) का पुरोहित (आशीर्वाद देनेवाला ) है । अर्थात्--नास्तिकों का गुरु है एवं अज्ञान का उच्चय ( ढेर ) हैं । अर्थात्- विशेष मूर्ख है और दिव्य ज्ञानियों की सृष्टि नष्ट करने के लिए यमराज है । अर्थात् — जिसप्रकार यमराज ब्रह्मा की सृष्टि नष्ट करता है उसीप्रकार आपका मन्त्री भी दिव्यशानियों ( अलौकिक ज्ञानधारक ऋषियों ) की सृष्टि नष्ट करता है तथा मनुष्यरूप से उत्पन्न हुआ असुर है। र्थात् पूर्व के असुर ने ही मनुष्य जन्म धारण किया है। अभिप्राय यह है कि जिसप्रकार असुर ( पिशाच विशेष ) द्वारा मानव पीडित किये जाते हैं उसीप्रकार आपके मन्त्री द्वारा भी प्रजा पीडित की जाती है* ॥२२७|| हे राजन् ! आपका यह 'पामरोदार' नामका मन्त्री देष-पूजनार्थ दिये हुए धन को नट-विटों के लिए दे देता है ऐसा वादा है। देवता की बड़ी मूर्ति को गलषा करके छोटी मूर्ति बनाता है, ऐसा देव निर्माता है एवं सत्यवादी है । अर्थात्-न से प्रतीत होनेवाला अर्थ यह है कि यमराज के समान निधी हूँ । हे राजन! ऐसा होने पर भी आश्चर्य या खेद है कि क्या यह इस समय धर्मात्मा है ? अपितु नहीं है * ॥ २२८ ॥
↑ 'स्वयं भण्डः स्वयं मन्त्री स्वयं A विश्वाकृतिस्तथ क० । A 'विश्वा । विरूपकः वा * 'खरं' क० ।
१. रूपकालंकार । २. प्रश्नोत्तरालंकार | * प्रस्तुत शास्त्रकार महाकवि का कल्पित नाम -सम्पादक ३. काकुवक्रोक्ति । ४. रूपकालङ्कार । ५. काकुवकोक्ति अलङ्कार 1
* 'तुहिनाप्यत्र' घ० । विश्वा तदाकारः' टिप्पणी ग