Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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सृतीय आधासः
२६३ ध्यानपरता, चतरवचनाय चिकस्येव धर्मागमपाठः, एरलोकगतिमाय निगलजालस्येव गुरुचरणोपचारः, शाकिनीमनस्येव सेक्केषु जीवितविमाशाय प्रियंवदता, अविज्ञातान्तस्तत्वस्य शुष्कसरःसेतोरिख क्लेशाय पियालोकता । अपि च ।
बहिरविकृतवर्मन्दमन्दप्रचानिभृतनयनपातः साधुसाकारसाः। निकृतिनधिनीतश्चान्सरेतैरमास्यस्तिमय हर बाटैञ्चिताः के न लो : .९२॥
देव, अप्सरसामिवामरेषु भरेष्वपि किल स्खलाना चई कावाप्रीति, प्रादुर्बभूवुः। तत्र तावत्प्रथम प्रमथनाथकण्ठालंकारनिकटात्कालकूटा प्रादुरासीत् , द्वितीयं द्विजिरा, तृतीयं नृक्षात्मजतुण्डचण्डसायाः, चतुर्थ चतु/पन्नात., पञ्चमं पञ्चतानुचरेभ्यः, षट्पज्ञपादपरागात , सप्तमं समाशोक, अष्टमममिविश्पात , मबम नरकारिमायायाः, पशमं दशलोचनदंष्ट्राकुरान, पकादशमेकान्ताकृत्येभ्यः, द्वादशं द्वापराभिप्रायपातकात् , त्रयोदश अपोतो, 'बर्दर्श च है। जो मन्त्री विद्वान रूपी मछलियों के भक्षणार्थं उसप्रकार ध्यान में लीन रहता है जिसप्रकार घगुला मछलियों के भक्षणार्थ ध्यान में लीन रहता है। बगुले के समान अथवा पाठान्तर में ठग-सरीखे जिस मन्त्री का विद्वानों के प्रतारणार्थ (ठगने के हेतु ) स्मृतिशास्त्र का पठन है। स्वर्ग-गमन रोकने के लिए शृङ्खला-(सांकल) समूह समान जिसकी गुर-पाद-पूजा है। जो डाँकिनी-जन के समान सेवकों की जाधिका नष्ट करने के लिए उनसे. मधुर भाषण करता है और जो प्रस्तुत मंत्री, जिसके माभ्यन्तर ममें की परीक्षा नहीं की गई है और जो सूखे तालाब पर पुल बाँधने के समान है, अर्थान्-जल के बिना पुल क्या करेगा ? अपि तु कुछ नहीं करेगा, दूसरों को कष्ट देने के निमित्त मधुर हाटपूर्वक देखता है।
हे राजन् ! जिसप्रकार ऐसे बगुलों द्वारा, जो बाह्य में उज्वल व पाभ्यन्तर में पापी ( मायाचारी) हैं, जो मन्द-मन्द गमन-शील निश्चल नेत्रशाली हैं तथा बाह्य में जिनकी आकृति सुन्दर प्रतीत होती है परन्तु जो श्राभ्यन्तर में मायाचारी हैं, मछलियाँ बञ्चित कीजाती है-धोखे में डाली जाती है उसीप्रकार ऐसे मन्त्रियों द्वारा, जो बाग में शुक्ल वेष के धारक हैं, जो धीरे-धीरे गमन करते हुए निश्चल नेत्रों से देखते हैं, जो सज्जनता के आभास से वलयत्तर है एवं जो मायाचार की नाति (पाच) में शिक्षित है, कौन-कौन से लोक वञ्चित नहीं किये गये १ अपि तु समस्त लोक वञ्चित किये गए---धोखे मैं खाले गए ॥ १६ ॥
___ अब 'शजनक' नाम का गुष्टचर यशोधर महाराज से निम्नप्रकार दुष्टों के १४ कुल व उनकी उत्पत्ति का कथन करता हुश्रा प्रस्तुत 'पामरोदार' मंत्री को दुष्ट प्रमाणित करता है
हे राजन् ! जिसप्रकार देवों में देवियों के चौदह फुल होते हैं उसीप्रकार मनुष्यों में भी दुष्टों के चौदह फुल पूर्व में प्रकट हुए हैं। उनमें से १. दुष्टकुल उस हालाहल विष से उत्पन्न हुआ था, जो कि पिशाचों के स्वामी ( श्री महादेव ) के कण्ठाभूषण के समीप वर्तमान है। २. दुजेन कुल सों से उत्पन्न हुआ है। ३. दुष्टकुल गरुड़ के धनुपुट की चण्डता से प्रकट हुआ है। ४. खलकुल चतुर्थीचन्द्र से उत्पन्न हुआ है। क्योंकि चतुर्थी का चन्द्र कलहप्रिय होता है। ५. स्सल-कुल-यमराज के किकरों से और ६. दुष्टकुल विटों या धूतों की पाद-धूलि से उत्पन्न हुआ है। ७. दुष्टफुल अम्रि से और ८. दुष्टपुल नरक से प्रकट हुश्रा। इसीप्रकार ६. दुष्टकुल श्रीनारायण की माया से और १०, दुष्टकुल यमराज की दादरूप अङ्कर से उत्पन्न हुआ है। ११की उत्पत्ति एकान्त मत के पापों से हुई और १२ऐं की उत्पत्ति संशय मिथ्यात्वरूप पाप से हुई एवं १३ वाँ दुष्ट कुल लज्जा की उत्कट गर्मी से और ५४ वाँ दुष्टकुल दूसरों
'कस्येव धर्मागमः पाठः' का ग.। १. उपमा व आक्षेपालंकार ।