Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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तृतीय आश्वासः
यथा मजा यायाता प्रयोगिनि । न चिरं श्रस्तधामन्त्रे जाततन्त्रेऽपि राजनि ॥ ११० ॥ शुचयः स्वामिनि स्निग्धा राजराखान्तवेदिनः । मन्त्राधिकारिणो राज्ञामभिजातः स्वदेशजाः ॥ १११ ॥ कदाचित सन्मानानाह्लादित समस्त मित्रतन्त्रः सचित्रलोक प्रतिसमुद्र्ष्टतमभ्यः श्रीविलासिनी सूत्रितैश्वर्यवरेषु घुमतीवरं खलु दूतपूर्वाः सर्वेऽपि संध्यादयो गुणा इार्याकार्य च ।
दक्षः शूरः शुचिः प्राज्ञः प्रगल्भः प्रतिभानवान् । विद्वान्सी तितिक्षुभ द्विजम्मा स्थविरः प्रियः ॥ ११२ ॥
प्राकरणिक मन्त्र मन्त्री का स्वरूप - जिसप्रकार मदोन्मत्त हाथी पर आरूढ़ हुआ पुरुष यदि वचन, पाद-संचालन व अङ्कुश प्रयोग आदि हरित संचालन के साधनों का प्रयोग ( व्यवहार ) नहीं करता तो उसकी चिरकाल तक शोभा नहीं होती । अर्थात् वह हाथी द्वारा जमीन पर गिरा दिया जाता है उसी प्रकार प्रचुर सैन्यशाली राजा भी यदि मन्त्रज्ञान से शून्य है तो उसके पास भी राज्यलक्ष्मी चिरकाल तक नहीं ठहर सकती । अर्थात् नष्ट होजाती है' ॥ ११० ॥ राजाओं के मन्त्री ( बुद्धि-सचिव ) ऐसे होते हैं, जो शुचि हों। रबीन की जानला आदि नीतिवि आचरणों से रहित हो, स्वामी से स्नेह प्रकट करनेवाले हों, राजनीतिशास्त्र के वेत्ता हों एवं तो कुलीन और अपने देश के निवासी हो । भावार्थप्रस्तुत नीतिकार ने मन्त्रियों में द्विज, स्वदेशवासी, सदाचारी, कुलीन व व्यसनों से रहित आदि नौ गुणों का निरूपण किया है, जिसे हम इसी आवास के नंः ७२०७३ की व्याख्या में विशेष विवेचन कर चुके हैं, प्रस्तुत *लोक में उनमें से उक्त पाँच मुख्य गुणों का कथन है, इसप्रकार यहाँ तक मन्त्राधिकार समाप्त हुआ ।।१११।। हे मारिदत्त महाराज ! निरन्तर आदर-सत्कार के प्रदान द्वारा समस्त मित्रों व सैनिकों को आनन्दित करनेवाले और मन्त्रिमण्डल को बुद्धि से मन्त्र का निश्चय करनेवाले मैंने ऐसा निश्चय करके कि "राजाओं में, जो कि राज्यलक्ष्मी रूपी वेश्या द्वारा सूचित किये हुए ऐश्वर्य से क्षेत्र हैं, जो सन्धि विग्रह ( युद्ध ) आदि गुण पाए जाते हैं, वे दूतपूर्वक ही होते हैं। अर्थात् राजदूतों की सहायता से ही सम्पन्न होते हैं" ऐसे 'हिरण्यगर्भ' नाम के दूत को बुलाया, जिसमें निप्रकार ( नीतिशास्त्र में कड़े हुए) गुण बर्तमान थे ।
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१. दक्ष ( सन्धि व विमद्द -आदि राजनैतिक कर्त्तव्यों के करने में कुशल ), २. शुरवीर ( शस्त्रसंचालन व राजनीति शास्त्र के प्रयोग करने में निपुण ), ३. शुचि, अर्थात् - पवित्र (निर्लोभी व निर्मल शरीर तथा विशुद्ध त्र-युक्त अथवा शत्रु के धर्म, अर्थ, काम और भय की जानकारी के लिए- अर्थात् - अमुक शत्रुभूत राजा धार्मिक है ? अथवा अधार्मिक ? उसके खजाने में प्रचुर सम्पत्ति है ? अथवा नहीं ? वह कामान्ध है ? अथवा जितेन्द्रिय ? यह बहादुर है ? अथवा डरपोक ? इत्यादि ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से - गुप्तचरों द्वारा छल से शत्रु-चेष्टा की परीक्षा करना इस 'उपधा' नाम के गुण से विभूषित ), ४. प्राज्ञ ( अपने व पर की विचार शक्ति से सम्पन्न - विज्ञान ) ५. प्रगल्भ ( दूसरे के चित्त को प्रसन्न करने में कुशल ), ६. प्रतिभानवान् ( शत्रु द्वारा किये जाने वाले उपद्रवों के निवारणार्थ अनेक उपाय प्रकट करनेयाला ), ७. विद्वान ( अपनी व शत्रु की व्यवस्था को जानने में निपुण ), ८. वाग्मी ( वक्ता - हृदय में स्थित अभिप्राय को प्रकट करने में प्रवीण ), ६. तितिक्षु ( दूसरों के गरजने पर गम्भीर प्रकृतिवाला ), १० ड्रिजन्मा (ब्राह्मण क्षत्रिय व वैश्य में से एक ), ११. स्थविर ( नीतिशास्त्र व ऐश्वर्य आदि से जिसका
*'सूत्रितस्वयंवरेषु' क० । 'इत्यवधाये च' क० | परन्तु मु. प्रती पाठ: समीचीनः -- सम्पादकः
+ तितिक्षा' मु. प्रती परन्तु च० प्रतितः व कोशतश्च संशोधितः - सम्पादक:
१.
दृष्टान्तालङ्कार | २.
जाति अलङ्कार |
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