Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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तृतीय अश्वासः
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की संगति से गुणवान् और दुष्टों की संगति से दुष्ट होजाते हैं । भावार्थ - शिष्ट पुरुषों की संगति से होनेवाले लाभ का निर्देश करते हुए नीतिकार प्रस्तुत आचार्य श्री ने लिखा है कि 'विद्याओं का अभ्यास न करनेवाला (मूर्ख मनुष्य ) भी विशिष्ट पुरुषों (विद्वानों ) की संगति से उत्तम ज्ञान प्राप्त कर लेता हैविद्वान होजाता है' । व्यास विद्वान ने भी कहा है कि 'जिसप्रकार चन्द्र-किरणों के संसर्ग से जड़रूप ( जलरूप ) भी समुद्र वृद्धिंगत होजाता है उसीप्रकार जड़ ( मूर्ख) मनुष्य भी निश्चय से शिष्ट पुरुषों की संगति से ज्ञानवान होजाता है' । प्रस्तुत नीतिकार ने दृष्टान्त द्वारा उक्त बात का समर्थन करते हुए कहा है कि "जिसप्रकार जल के समीप वर्तमान वृक्षों की छाया निश्चय से अपूर्व ( विलक्षण - शीतल और सुखद ) होजाती है उसीप्रकार विद्वानों के समीप पुरुपों की कान्ति भी अपूर्व - विलक्षण - होजाती है । अर्थात् वे भी विद्वान होकर शोभायमान होने लगते हैं" । वल्लभदेव विद्वान के उद्धरण का भी उक्त अभिप्राय है ॥ १ ॥ दुष्टों की संगति से होनेवाली हानि का निर्देश करते हुए आचार्य श्री ने कहा है कि "दुष्टों की संगति से मनुष्य कौन २ से पापों में प्रवृत्त नहीं होता ? अपि तु सभी पापों में प्रवृत्त होता है" । भदेव विद्वान ने भी कहा है कि "दुष्टों की गति के दोष से सज्जन लोग विकार - पापकरने लगते हैं, उदाहरणार्थ- दुर्योधन की संगति से महात्मा भीष्मपितामह गायों के हरण में प्रवृत्त हुए || १ ||" कुसंग से विशेष हानि का उल्लेख करते हुए प्रस्तुत नीतिकार " ने कहा है कि 'दुष्ट लोग अग्नि के समान अपने आश्रय ( कुटुम्ब ) को भी नष्ट कर देते हैं पुनः अन्य शिष्ट पुरुषों का तो कहना ही क्या है ?' अर्थात् उन्हें वो अवश्य ही नष्ट कर डालते हैं ।
अर्थात् जिसप्रकार अग्नि जिस लकड़ी से उत्पन्न होती है, उसे सब से पहिले जला कर पुनः दूसरी धतुओं को जला देती है उसीप्रकार दुष्ट भी पूर्व में अपने कुटुम्ब का क्षय करता हुआ पश्चात् दूसरों का क्षय करता है । वलभदेव विद्वान् ने भी उक्त बात का समर्थन किया है कि 'जिसप्रकार धूम अग्नि से उत्पन्न होता है और वह किसीप्रकार बादल होकर जलपृष्टि द्वारा अग्नि को बुझाता है उसीप्रकार दुष्ट भी भाग्यवश प्रतिष्ठा प्राप्त करके प्रायः अपने बन्धुजनों को ही तिरस्कृत करता है || १ | सत्सङ्ग का महत्वपूर्ण प्रभाव निर्देश करते हुए आचार्य श्री ने लिखा है कि “जिसप्रकार लोक में गन्ध-हीन तंतु भी पुष्प-संयोग से देवताओं के मस्तक
१.
२.
३.
तथा च सोमदेवसूरिः — अनधीयानोऽपि विशिष्टजनसंसर्गात् परां व्युत्पत्तिमवाप्नोति ॥१ ॥
तथा च व्यासः - विषेकी साधुसङ्गेन जयोऽपि हि प्रजायते । चन्द्रांशुसेवनान्नूनं यावच्च कुमुवाकरः ॥ १ ॥
तथा च सोमदेवसूरिः अन्येव काचित् खञ्च छायोपजतरूणाम् ॥१॥
तथा च वचनदेकः अन्यापि जायते शोभा भूपस्यापि जहात्मनः । साधुसन्तादि वृक्षस्य सलिला दूरवर्तिनः ॥१॥ नीतिवाक्यामृत ( भाषा ढोका समेत ) ४. ९४-९५ से समुद्धृत-सम्पादक
५. तथा च सोमदेवसूरिः:----खलस ेन किं नाम न भवत्यनिष्टम् ||१||
६.
तथा च वलभदेवः -- असता संगदोषेण साधवो यान्ति चिकियो । दुर्योधनप्रसङ्गेन भीष्मो गोहरणे गतः ॥१॥
तथा व सोमदेवसूरिः -- अग्निरिव स्वाश्रयमेव दद्दन्ति दुर्जनाः ||१||
४.
७.
<. तथा च वल्लभदेवः - धूमः पयोधरपदं कथमप्यवाप्यैषोऽम्बुभिः शमयति ज्वलनस्य तेजः । देवादवाप्य खल नीचजनः प्रतिष्ठां प्रायः स्वयं बन्धुजनमेष सिरस्करोति ॥१ ॥
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तथा च सोमदेवसूरिः—असुगन्धमपि सूत्र कुसुमसंयोगात् किन्नारोइति देवशिरसि ॥१॥