Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
मृतीय आश्वासः प्पलीकै पर्यपर्यासन्यस्तमात्चेतसाम। विनयाय तथाप्येषां विक्षोऽसिदिश्यसाम् ॥१०॥ इति नवफानुपायसर्वज्ञात् 'साध्वाह देव, आर्यमित्राणामग्रणी: प्राज्ञ उपायर्वशः।
द्विषतापि हिते प्रोक्ते सन्तस्सदनुलोमनाः। विवदेतात्र को नाम समकार्यधुरोदिते ॥ १० ॥ केवलमिदमशेषार्थशासोपात्तसारसमुच्चयं सुभाषितत्रयं शारीरं कर्मेव प्रत्यहमवधातव्यम् ।
स्वस्मानिज पोऽन्यस्मात् अस्वः परस्मात् परो निजात ।।
पक्ष्यः स्वस्मात् परस्माश्च मिस्यमास्मा जिगीपुणा ॥ १७ ॥ इन ऐसे उदण्ड राजाओं के शिक्षण करने के लिए ( उद्दण्डता दूर करने के हेतु) आपको समस्त दिशाओं में फौज भेजनी चाहिए, जिनके चित्त में से मैंठे ऐश्वर्य-मद के कारण मर्यादा (सदाचार ) विलकुल नष्ट होयुकी है' ॥ १०५ ॥
समस्त मन्त्रिमण्डल में प्रधान नीतिबृहस्पति' नामके मंत्री का कथन है राजन् ! यह 'उपाय सर्वज्ञ' नाम का नवीन मन्त्री उचित कह रहा है, क्योंकि यह समस्त विद्वानों में अग्रेसर (प्रधान) और विशिष्ट बुद्धिशाली विद्वान है।
हे राजन् ! यदि शत्रु द्वारा भी भविष्य में कल्याणकारक बात कही जावे तो उसे भी सज्जन पुरुष स्वीकार करते हैं-मानते हैं। हे राजन् ! ऐसे विषय पर, जिसमें साधारण कार्य का निरूपण मुख्यता से किया गया है, कौन विषाद करेगा ? अपि तु कोई नहीं करेगा । १०६ ।।
हे राजन् ! निम्नप्रकार कहा जानेवाला सुभाषितत्रय ( कानों को अमृतप्राय तीन श्लोकों का रहस्य ), जिसमें समस्त अर्थशाखों ( नीतिशाखों) से सार-समूह ग्रहण किया गया है, आपको उसप्रकार निरन्तर धारण (पालन) करना चाहिए जिसप्रकार शरीररक्षा के कार्य ( भोजनादि ) सदा धारण किये जाते हैं।
हे राजन् ! विजयश्री के इच्छुक राजा को अपने आदमी की रक्षा स्वयं करनी चाहिए और दूसरे की रक्षा दूसरे की सहायता से करनी चाहिए। कभी अपना आदमी दूसरों के द्वारा सताया हुआ दूसरे से रक्षा करने के योग्य है और कभी दूसरा आदमी किसी से पीड़ित हुआ अपने सेवकों द्वारा रक्षा करने के योग्य होता है परन्तु अपनी आत्मा की रक्षा अपने से और दूसरों से सब प्रकार से सदा करनी चाहिए ॥१०७॥ हे राजन् ! आप बगीचे के माली-सरीखे निम्रप्रकार यथायोग्य व्यापार (साम, दान-श्रावि नीतियों का समुचित प्रयोग) में चतुर हुए पृथिवी का पालन (संरक्षण) कीजिये । अर्थात्जिसप्रकार बगीचे का माली निम्नप्रकार के कर्तव्य-पालन द्वारा अपने बगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार
आप भी निम्रप्रकार के कर्तव्य-पालन द्वारा पृथिवी की रक्षा कीजिए। अभिप्राय यह है कि जिसप्रकार बगीचे का माली बेरी व बयूल-श्रादि कटीले वृक्षों को बगीचे से बाहिर वर्तमान वृतिस्थान (बाड़ी-विरवाई ) पर बाँधता हुआ बगीचे की रक्षा करता है। अर्थात्-उक्त कटीले वृक्षों को काटकर बजे के चारों ओर बाह (विरवाई) लगाकर बगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार पजा भी क्षुद्र शत्रुओं को अपने देश से
* 'परोऽन्यस्मात्परों निजात्' कः ।
+ 'परे परेभ्यः स्वैः स्वेभ्यः स्खे परेभ्यश्व तैः। परे २६यः स्वेभ्यः परेभ्यश्च नित्यमात्मा विपश्चिता क. । अर्थात्-उक्त इलोक नं० १.७ के पचात् ह. लि. मू० प्रति क में अधिक उल्लिखित है-सम्पादक
१. जाति-भलकार २. भाक्षेपालकार। ३. जाति-अलकार ।