Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
२२७
तृतीय आश्वासः देशकालम्ययोपायसहायफलनिश्चयः । देव पत्र स मन्त्रोऽन्यत्तुपरकाविणीवनम् ॥ ६९ ॥ मैं कौन सी इष्ट वस्तु प्राप्त करने के अयोग्य हैं ? अपितु सभी इष्ट वस्तुएँ (विजयश्री-आदि) आपके द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं। भावार्थ-नीतिकारों ने कहा है कि जिसप्रकार जड़-सहित वृक्ष शाखा, पुष्प व फलादि से वृद्धिंगत होता है उसीप्रकार राज्यरूपी वृक्ष भी राजनैतिक ज्ञान, सदाचार तथा पराक्रम शक्ति से समृद्धिशाली होता है। अतः राजा का कर्तव्य है कि वह अपने राज्य को सुरक्षित, वृद्धिंगत व स्थायी बनाने के लिए सदाचार लक्ष्मी से अलङ्कत हुश्रा सैनिक शक्ति व खजाने की शक्ति का संचय करता रहे, अन्यथा दुराचारी व सैन्य-हीन होने से राज्य नष्ट हो जाता है। शुक्र विद्वान के बुद्धरण का यही अभिप्राय है। प्रकरण में 'उपायसस' नाम का मंत्री मन्त्रशाला में यशोधर महाराज से कहता है कि हे देव ! उक्त दोनों गुण विजयश्री के कारण हैं और श्राप उक्त दोनों गुणों से विभूषित है अतः श्राप को विजयश्री-आदि सभी इष्ट फल प्राप्त झे सकते हैं. ॥६॥
हे राजन् ! जिस मन्त्र (सुयोग्य मन्त्रियों के साथ किया हुआ राजनैतिक विचार) में निम्न प्रकार पाँच तत्त्व (गुण) पाये जाते हैं, वहीं मंत्र कहा जाता है और जिसमें निम्रप्रकार पाँच गुण नहीं है, वह मंत्र न होकर केवल मुख की खुजली मिटाना मात्र है। १-देश व काल का विभाग, २–व्ययोपाय (विनिपात प्रतीकार), ३-उपाय ( कार्य-प्रारम्भ करने का उपाय ), ४-सहाय (पुरुष अ द्रव्य संपत्ति ) और ५–फल ( कार्यसिद्धि)।
भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकार आचार्य श्री की मान्यता के अनुसार मन्त्र (मन्त्रियों के साथ किये ए विचार ) के पाँच अङ्ग होते हैं। १-कार्य प्रारम्भ का उपाय, २-पुरुष व द्रव्यसंपत्ति, ३-देश और काल का विभाग, ४-विनिपात प्रतीकार और ५–कार्यसिद्धि।
१-कार्य-प्रारम्भ करने का उपाय-जैसे अपने राष्ट्र को शत्रुओं से सुरक्षित रखने के लिए समें साई, परकोटा ब दुर्ग-नादि निर्माण करने के साधनों पर विचार करना और दूसरे देश में शत्रुभूत | राजा के यहाँ सन्धि व विग्रह-आदि के उद्देश्य से गुप्तचर व दूत भेजना-आदि कार्यों के साधनों पर विचार | सना यह मन्त्र का पहला अङ्ग है। किसी नीतिकार ने कहा है कि 'जो पुरुष कार्य प्रारम्भ करने के । पूर्व ही उसकी पूर्णता का उपाय--साम पं दान आदि-नहीं सोचता, उसका वह कार्य कभी भी पूर्ण नहीं होता' ।। १ ।।
___२-पुरुष व द्रव्यसंपत्ति-अर्थात्-यह पुरुष अमुक कार्य करने में प्रवीण है, यह जानकर उसे उस कार्य में नियुक्त करना। इसीप्रकार द्रव्यसंपत्ति-कि इतने धन से अमुक कार्य सिद्ध होगा, यह क्रमशः पुरुषसंपत्' और 'द्रव्य-संपत्' नाम का दूसरा मन्त्राग है। अथवा स्वदेश-परदेश की अपेक्षा से प्रत्येक
१. तपा च सोमदेवरि:-राज्यस्य मूलं क्रमो विकमश्च । २. तथा च शुमः-कमविझममूलस्य राज्यस्य यथा सरोः । समूलस्य भषे वृदिस्ताभ्यो हीनस्य संक्षयः ॥१॥ ३. तथा च शुकः-लौकिक व्यवहारं यः कुरुते नयवृद्धितः । तद्दया बिमायाति राग्य तत्र क्रमागतम् ।।१।। ४. आक्षेशलंकार ।
नीतिवाक्यामृत ( भा. टी.) पू. .७८ से संकलित-सम्पादक ५. तपा च सोमदेवरि:-"कर्मणामारम्भोपायः पुरुष व्यसंपत् देशकालविभागो विनिपातप्रतीकारः कार्यसिदिश्चेति
पंचांगो मंत्रः ।। ६. तथा योक-कार्यारम्भेषु नोपायं तन्सिस्यर्थ च चिन्तयेत् । यः पूर्व तस्य नो सिद्धि तरकार्य याति कहिचित् ।।५।।