Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकचम्पूत्रव्ये तन्नयानायनिक्षेपात् कुरु हस्ते हिपत्तिमीन् । दोभ्यो युद्धाधुधिक्षोभाचगृहे पुश सुतः ॥... एक बपुरुभौ हस्तौ शववश्व पदे पदे । दुःखकृत्कण्टकोऽपि स्यास्कियस्लान साध्यते ॥ १॥ साम्ना दानेन भेदेन यत्कार्य नैव सिध्यति। तत्र दण्ड प्रयोक्तन्यो नृपेण मियमिता ॥ १२ ॥
प्राचार्यश्री' ने लिखा है कि 'जब विजिगीषु को मालूम होजावे कि "आक्रमणकारी का शत्रु उसके साथ युद्ध करने तैयार है ( दोनों शत्रु परस्पर में युद्ध कर रहे हैं) तब इसे द्वैधीभाव (वलिष्ठ से सन्धि व निर्वल से युद्ध) अवश्य करना चाहिये। गर विद्वान ने भी द्वैधीभाव का यही अवसर बताया है !' १ ॥ "दोनों निजिमीयों के बीच में घिरा हुआ शत्रु दो शेरों के बीच में फँसे हुये हाथी के समान सरलता से जीता जासकता है।"। शुक ने भी दोनों विजिगीषुओं से आक्रान्त हुए सीमाधिप शत्रु को सुखसाध्य-सरलता से जीतने के योग्य बताया है" ॥ १।। प्राकरणिक निष्कर्ष-उपायसर्वज्ञ नाम का मन्त्री यशोधर महाराज के प्रति द्वैधीभाव ( दोनों शत्रुओं को लड़ाकर बलिष्ठ से सन्धि व हीन से विग्रह) का निरूपण करता है एवं उसके फलस्वरूप विजिगीषु मध्यस्थ हुआ निष्कण्टक होने से लक्ष्मी का आश्रय उक्त दृष्टान्त के समान होता है' यह निरूपण कर रहा है ॥६॥
हे राजन् ! इसलिए युद्धरूपी समुद्र में नीति ( साम, दान, पंख व भेदरूप उपाय ) रूपी जाल के निक्षेप ( डालना) से शत्ररूप मच्छों को हस्तगत कीजिए-अपना सेवक बनाइए। क्योंकि केवल दोनों भुजाओं द्वारा युद्धरूप समुद्र को पार करने से योद्धाओं के गृह में कुशलता किसप्रकार होसकती है ? अपि तु कदापि नहीं होसकती ॥ ॥ हे राजन् ! विजिगीषु राजा के शत्रु पद पद में (सब जगह ) वर्तमान हैं एवं कण्टका (बदरी-कण्टक-सरीखा क्षुद्र शत्रु) भी पीड़ा-जनक होता है जब उन पर विजय प्राप्त करने के लिए उसके पास एक शरीर और दो हस्त है तब बताइए कि विजिगीषु केवल तलषार द्वारा कितनी संख्या में शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकता है? अपि तु नहीं कर सकता। 'अभिप्राय यह है कि विजयश्री के इच्छुक राजा को साम, दान, दर व भेदरूप उपायों द्वारा शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करते हुए उन्हें वश में करना चाहिए, जिसके परिणामस्वरूप उसका राज्य निष्कण्टक ( समस्त प्रकार के शत्रुओं से रहित ) होगा ॥६शा
हे देव ! जो कार्य साम, दान व भेदनीति से सिद्ध ( पूर्ण ) नहीं होता उसको सिद्ध करने के हेतु विजय श्री के इच्छुक राजा को दंडनीति (शत्रु का वध करना या ससे दुःखित करना या उसके धन
१. तथा च सोमदेवर्षि :-=धीभावं गच्छेद् यदन्योऽवश्यमास्मना महोत्सहते ॥ १॥ २. तथा च गर्ग :-यद्यमी सन्धिमादातु' युद्धाय करते क्षण 1 निश्चयेन तदा तेन सह सन्धिस्तया रणम् ॥ १ ॥
तथा च सोम देवर्षि :-बलयमध्यस्थितः शत्रुभय सिंहमध्यस्थितः करीव भवति सुखसाध्यः 1॥१॥ ३. तया च शुक:-सिंहयोर्मध्ये यो हस्ती सुखसाध्यो यथा भवेत् । तथा सीमाधिपोऽन्येन विगृहीतो पो भवेत् ।। ११
__ नीतिवाक्यामृत व्यवहारसमुद्देश ( भा. टी.)पृ. ३५६ व ३७८ से संगृहीत–सम्पादक ४. उपमालंकार । ५. रूपकालंकार व आक्षेपालकार। ६. चकं च-सूच्यप्रे क्षुदशत्रौ च रोमहर्षे च कण्टका संकटौ.पू. १८९ से संगृहीत-सम्पादक ५. धापालंकार।