Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये स्वदेशः परदेशी वा मन्त्री भवतु भूभुजाम् । प्रारब्धकार्यनिर्वाहमुखसिद्धया प्रयोजनम् ॥ ४२ ॥ राजाओं की मंत्रक्रिया भी समय धूक जानेपर कार्यरूप में परिणत न होने के कारण निरर्थक होती है। अथवा पाठान्तर में जिसप्रकार क्षपण ( नभ दिगम्बर साधु ) राजनैतिक युद्ध-श्रादि की मन्त्रणा (विचार) करता है परन्तु युद्ध नहीं करता, अतः जिसप्रकार उसकी मन्त्रक्रिया निरर्थक होती है उसीप्रकार समय चूक जानेपर राजाओं को मन्त्रक्रिया निरर्धक होती है।
भावार्थ-नीतिकार प्रस्तुत प्राचार्यश्री ने कहा है कि 'मन्त्र (विचार ) निश्चित होजाने पर विजिगीषु राजा उसे शीघ्र ही कार्यरूप में परिणत करने का यत्न करे, इसमें उसे आलस्य नहीं करना चाहिए।' नीतिकार कौटिल्य ने भी कहा है कि 'अर्ध का निश्चय करके उसे शीघ्र ही कार्यरूप में परिणत करना चाहिए समय को व्यर्थ विताना श्रेयस्कर नहीं।' शुक विद्वान्' ने भी कहा है कि 'जो मानव विचार निश्चित करके उसी समय उसका आचरण नहीं करता उसे मन्त्र का फल ( कार्यसिद्धि) प्राप्त नहीं होता' ॥१॥ प्रस्तुत आचार्य ने कहा है कि "जिसप्रकार औषधि के जान लेने मात्र से व्यरधियों का नाश नहीं होता किन्तु उसके सेवन से ही होता है उसीप्रकार विचार मात्र से राजाओं के सन्धि व चिग्रह-आदि कार्य सिद्ध नहीं हो सकते किन्तु मन्त्रणा के अनुकूल प्रवृत्ति करने से ही कार्य सिद्ध होते है"। नारद विद्वान् ने भी उक्त बात की पुष्टि की है ॥७१॥
हे राजन् ! राजाओं का प्रधान मंत्री चाहे अपने देश ( 'आर्याच-भारतवर्ष) का निवासी हो अथवा दूसरे देश का रहनेयाला हो, हो सकता है। क्योंकि राजाओं को तो प्रारम्भ किये हुए कार्य (सन्धि व विग्रह-आदि) के पूर्ण करने से उत्पन्न हुई सुख-प्राप्ति से ही प्रयोजन रहता है। अर्थात्-राजा का उक्त प्रयोजन जिससे सिद्ध होता हो, वह चाहे स्वदेशवासी हो या परदेशवासी हो, मंत्री हो सकता है। उदाहरणार्थ-हे राजन् ! अपने शरीर में उत्पन्न हुआ रोग दुःखजनक होता है और वन में उत्पन्न हुई जड़ी-बूटी-आदि औषधि सुख देती है। अर्थात- बीमारी को नष्ट करती हुई श्रारोग्यतारूप सुख उत्पन्न करती है, इसलिए पुरुषों के गुण ( सदाचार, कुलीनता, व्यसन-शून्यता, स्वामी से द्रोह न करते हुए उसके कार्य की सिद्धि करना, नीतिज्ञता, युद्धकला-प्रवीणता व निष्कपटता-आदि : कार्यकारी (प्रयोजन सिद्धि करनेवाले ) होते हैं। अपनी जाति या दूसरी जाति का विचार पक्ति भोजन के अवसर पर होता है परन्तु राजनीति के प्रकरण में तो दूसरे से भी कार्यसिद्धि करा लेनी चाहिए। क्योंकि जिसप्रकार जंगली जड़ी-बूटी-श्रादि श्रीपधि बीमारी के ध्वंस द्वारा आरोग्यतारूप सुख उत्पन्न करती है उसीप्रकार परदेश का
१. तथा च सोमदेवरि:- उद्धृतमन्त्रो न दीर्घसूत्रः स्यात् ॥१॥ नीतिवाक्यामृत मानसमुश सूत्र ४२ । २. तथा च कौटिल्यः- भवामार्थः कालं नातिक्रमेत ॥१॥ कौटिल्य अर्थशास्त्र मन्त्राधिकार सूत्र ५० । ३. तथा च शुक्रः--यो मंत्र मंत्रयित्वा तु नानुष्ठानं करोति च । तत्क्षणात्तस्य मन्त्रस्य जायते नात्र संशयः ॥१॥
नौतिवाक्यामृत पृ. १६९ से संकलित-सम्पादक ४. तथा च सोमदेवसूरिः-न पौषत्रिज्ञानादेव घ्याधिप्रशमः ॥१॥नौतिवाक्यात मन्त्रिसमुहेश सूत्र ४४ ५. तथा च भारद--विज्ञायते भैषजे यात विना भक्षं न नश्यति । व्याधिस्तथा च मंत्रेऽपि न सिरः कृत्य
वर्जिते ॥ नीतिवाक्यामृत पू. १६५-१७. से संगृहौल-सम्पादक ६. उपमालंकार।
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