Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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द्वितीय आवास:
क्वचिव 'हळे व्यक्तीकविका सव्यसनिनि वसन्त्रिके, किसचकिंवदन्तीभिः ।
अदिल पतस्व अकुमुकुलावलीवर धनेषु । अङ्गो मिर्गसे छबङ्गि मा गाः सखीभिः सह सङ्गम् । अकालक्षेप cred चिप्रदामेषु । अयि प्रमादिनि मदने, किमद्यापि निहायसि । द्रुतमादियस्थारतीयप्रगुणतायाम् । अणि कुरभि, किमकाण्डमितस्ततो हिण्वसे । अचिराम स्वरस्य देवस्याङ्गरागसंपादनेषु । अयि बाधापने मासि एष खलु समीपवर्ती देवः । तषु [लहृत्स्व भद्रासनप्रसाधनेषु । अये हसियदोहदये सि किं माकर्णयसि सविषय तुरशब्दम्, यतो न तुई सबसे ताम्बूलकपिलिकायाम् । अहे अलकबाहरीमङ्गदुर्विधे मधुकरि, किं सुधा विधमस्थात्मानम् । अद्धा प्रसाधय प्रकीकानि । वर्दधर, उपसर प्रदूर्गमेकसः। किरात, निकेल निजनिवासे निभृतम् । कुरुय म्युरुज जहाँपर सर्वत्र उपरितन भूमिका - शिखर के प्रान्त भागों पर एकत्रित हुई नवयुवती रमणियों के [ शुभ ] कटाक्षों के प्रसार ( वितरण ) द्वारा उज्वल ध्वजाओं के वस्त्र द्विगुणित शुभ्र किए गए थे एवं जहाँ किसी स्थान पर पचास वर्ष से ऊपर की आयुवाली वृद्ध स्त्रियों द्वारा समस्त परिवार चारों ओर से निम्नप्रकार व्याकुलित किया गया था। उदाहरणार्थ – 'हे वसन्तिका नाम की सखि ! तू निरर्थक शृङ्गार करने में आसक है, तुझे जुआरियों की बातचीत करने से क्या लाभ है ? कोई लाभ नहीं । अब मञ्जुल पुष्प कलियों की श्रेणी-रचना ( मालाओं का गूँथना ) में यत्न करें। हे अनिषिद्ध गमनवाली ( स्वच्छन्द गमन- शालिनी) लवङ्गिका नाम की अन्तःपुर-सुन्दरी सखी! तुम सखियों के साथ सङ्गम ( मिलना-जुलना ) मत करो और अविलम्ब ( शीघ्र ही ) हि (चतुष्क-चौक पूरण) में दक्ष होत्रो - शीघ्रता करो। हे प्रमाद करनेवाली 'मदन' नाम की अन्तःपुर-सुन्दरी ! तुम इस समय में भी क्यों अधिक निद्रा" ले रही हो ? भारती के सजाने की क्रिया में शीघ्र ही आदर करो । अयि कुरङ्गि नाम की संस्त्री ! बिना अवसर यहाँ-वहाँ क्यों घूम रही हो? तुम यशोधर महाराज के अङ्गरोग ( कपूर, अगुरु, कस्तूरी, कुङ्कम व कडोल-आदि सुगन्धित व तरल वस्तुओं का विलेपन ) करने में शीघ्र ही वेग-शालिनी (शीघ्रता करनेवाली ) होओ। अयि विशेष वार्तालाप युक्त मुखवाली अन्त:पुर-सुन्दरी मालती नाम की सखी! यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले यशोधर महाराज निकटवर्ती हो रहे हैं। अतः सिंहासन की प्रसाधन-विधि ( अलङ्कृत करने की लक्ष्मी -- शोभा ) में शीघ्र ही समर्थ होओ। हे प्रफुलित व मनोरथों से व्याप्त मनवाली 'राजहंसी' नाम की सखी! तुम अत्यन्त निकटवर्ती वादित्र-ध्वनि क्यों नहीं श्रवण करती ? जिससे ताम्बूल स्थगिका ( पान लगाने का व्यापार ) में शीघ्र प्रगुणा ( सरल या समर्थ ) नहीं हो रही हो ? केशमञ्जरी की मार्ग-रचना (सजावट) में विशेष निपुणता युक्त हे मधुकरी नाम की सखी! तुम अपना स्वरूप निरर्थक क्यों विडम्बित - विडम्बना युक्त करती हो ? अब शीघ्र चँमर ( ढोरने के लिए ) सुसज्जित करो। हे नपुंसक ! तू शीघ्र ही एक पार्श्वभाग पर दूर चला जा ( क्योंकि तेरे दर्शन से प्रस्तुत यशोधर महाराज को अपशकुन हो जायगा ) 1 हे भिल्ल ! तुम अपने गृह पर नम्रतापूर्वक निवास करो । क्योंकि तेरे देखने से प्रस्तुत राजा को अपशकुन होगा। अरे कुबड़े ! तू शुभ परिणामों से शोभायमान होनेवाली चेष्टाश्रों में सरल हो जा। भरे बोने ! तू ऐसी क्रीड़ाएँ रच ( भाग जा ), जिनमें उत्कण्ठा रूप रस प्रधानता से पाया जाता है, क्योंकि तेरे दर्शन से राजा सा= को अपशकुन होगा। हे चुकी (अन्तःपुर रक्षक ) ! तू अपने अधिकारों (अन्तःपुर-रक्षा- आदि) में चेष्टा रक्षा कर- प्रयत्नशील हो । अर्थात्
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A
*. 'रङ्गावलि प्रदानेषु' क० X 'अभि' ० । 1' रंघस्य' इति ६० । दक्षस्व - शीघ्रा भव । 'दक्ष शीघ्राच' इति धातोः रूपं ।
१.
'श स्वप्ने' इति धातोः रूपं । ३. बावियल - 'दि बादरे' तुदादेर्धातोः रूपं ।
२६
. रधि लधि सामर्थ्य - समयभन २. निशयसि निद्रां करोषि ।