Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकचम्पूभन्मे एममपरासामपि मदाखोकनोस्सुम्ममसो निजविभमापहसितवासीयावालवासितविजासामामनाममकामधेनूमामिव मत्तकामिमीना स्मरसरनिधितफरकाशिमिः,
अपि च स्यचिदम्पनिश्चितशास्त्रशेमुवीश्वर विचारगोकरीकिपमाणसकलयगइयवहारं भर्मराजनगरमित्र, मचिमिन्मजनोदारियमाणनिगमार्थे ब्रह्मालपमिन, इविदरतसुतामिमीयमानेतिवृत्तं तदुभवनमिव स्वचिदाभप्रधानविधीमानसरकोपदेश समवसरणमित्र, समिरम्मानसागरगणमरुगकर स्पन्दनमित्र, + क्वचिदिनीयमानसारङ्गसहमराजवितवमिर, सविनासबास्मती पदर्शनक्षुभिताको गपरिरमनङ्गमित्रोदय : प्रमोद रत्ताकरमिव,
हे मारिदत्त महाराज ! इसप्रकार मैं दूसरी ऐसी मत्तकामिनियों ( रूपवती व युवती रमणियों ) की ऐसी कटाक्षपूर्ण चितवनों से, जो कि कामदेव के वामों ( पुष्पों) की तीक्ष्ण भल्लिन्धों (अमभागों ?) के समान प्रकाशित होरही थी। अर्थान्-जरे कपूर के समान शुभ्र थीं, से द्विगुणित ( दुगुनी) की हुई लाजालियों (माङ्गलिक अक्षतों ) की वर्षा द्वारा अपने को आत्रादि फल चाहनेषाले लोक के लिए. पुष्पशाली करता हुआ ऐसे 'त्रिभुवन तिलक' नाम के राजभवन में प्राप्त हुआ। कैसी हैं ये रूप व यौवन-सम्पन्न कामिनियाँ ? जिनम्र चित्त मेरे दर्शनार्थ उत्कण्ठित होरहा था, जिन्होंने अपनी भ्रुकुटि-विक्षेपों द्वारा स्वर्गलोक की देवियों की नेत्र शोभा तिरस्कृत-लज्जित-की थी एवं जो कन्दर्प-( कामदेष) गृह की कामधेनु-सरीखी ( कामदेव को उद्दीपित करनेवाली ) थीं।
सुस 'त्रिभुवनविलक' नाम के राजभवन में विशेषता यह थी-कि जिसमें किसी स्थान पर समस्त संसार का ऐसा व्यवहार, जो कि निशित ( सूक्ष्म तत्व का निरूपक ) शासों के वेत्ता विद्वानों द्वारा जानने योग्य था, उसप्रकार पाया जाता था जिसप्रकार यमराज के नगर में समस्त संसार का ऐसा व्यवहार (यह मर चुका, यह मारा जारहा है और यह मरेगा इसप्रकार का वर्ताव ), जो कि निशित ( तीक्ष्ण-जीवों को प्रहण करनेवाले) शाखों के वेत्ता विद्वान ऋषियों द्वारा जानने योग्य था। जिसमें किसी स्थल पर ब्रामण लोगों द्वारा निगमार्थ-नगरों व ग्रामों का उदग्रहीत धन वसप्रकार निरूपण किया जारहा था जिसप्रकार ब्रह्म-मन्दिर में विद्वान ब्राह्मणों द्वारा निगमार्थ (वेद-रहस्य) निरूपण किया जाता है। जहाँ किसी स्थान पर नाचायों द्वारा भरत-शास (नाट्य-शास्त्र) का निरूपण उसप्रकार किया जारहा था जिसपर तण्डु-(शंकरजी द्वारा दिये हुये ताण्डवनृत्य के उपदेश को ग्रहण करनेवाले प्रथम शिष्य भरतमुत-नाटकाचार्य) के महल में नाट्य शास्त्र के आचार्यों द्वारा भरत-शास्त्र-नाट्य-शास्त्र का अभिनय किया जाता है। जो किसी स्थान पर विद्वानों में प्रधान विद्वानों द्वारा दिये जानेवाले तत्वोपदेश ( नानाभाँति को वीणा-श्रादि वादिन-कला ) से उसप्रकार विभूषित था जिसप्रकार समवसरणभूमि तत्वोपदेश ( मोझोपयोगी जीव व अजीव-आदि तत्वों के उपदेश-दिव्यध्वनि) से विभूषित होती है। जिसमें किसी स्थान पर सागर-गरण ( घोड़ों की जेणी ) उसप्रकार खेद-खिन्न किया जारहा था जिसप्रकार सूर्यस्य में सागर-गरण ( उसके घोड़ों का समूह ) खेद-खिन्न किया जाता है। जहाँपर किसी स्थल पर हस्ति-समूह उसप्रकार शिक्षित किया जारहा था जिसप्रकार गज (हाथी) शास्त्र के प्राचार्य-गृह पर हस्ति-समूह शिक्षित किया जाता है। जहाँ किसी स्थान पर समीपवर्ती इम लोगों ( यशोधर महाराज व अमृतमती महादेवी तथा चतुरनिगो सेना-आदि ) के दर्शन से समस्त कार्य करनेवालों का कुटुम्ब उसप्रकार क्षध (संचलित ) होरहा था जिसप्रकार चन्द्र के उदय से प्रमुदिव (वृद्धिंगत-उछलनेवाली तरकोंवाला) होनेवाला समुद्र क्षुब्ध ( उत्कल्लोल) होता है।
* 'बशेषशास्तनिधितशेमुषीश्वर, इ. । । 'क्वचिद्विघीयमान' का। + 'प्रमदं का।