Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये शुभाशयविशिष्टासु चेष्ठासु । म सामन, Aii ster। सोलि , लोक्षासमीहस्व निपनियोगेषु । *शुकपाक, मोत्कण्ठमुत्कण्ठस्व भोगावलीपापु । सारिके, प्रमोदाधिक कीर्तय मङ्गलानि । हसि, कुसो न हसि रसितुं निरावाधावकाश देश । सारस, कस तारस्वरः प्रदक्षिणप्रचारः । कुरङ्ग, रतापसव्यं वीपिनां स्थाने, विजयकुझर, उदग्दर शुभौचितानीक्षितानि । जयहय, सोपं हषस्व ।' इति मातृव्यञ्जनाभिर्जरतीभिमाकुलितनिखिलपरिजनं चरित्रभुवनतिम नाम समन्सतस्नु समकशशास्ससंगतानापानसरपुमरुक्तसितपताकाबसनं रामसदनमासादयांबभूव कीर्तिसाहारनामा चैतालिकालक्ष्मी विश्रध्वजौधः क्चधिनिलयलोलोलवीषे नधा
श्शायां पुष्यस्सुमेरोः क्वचिदरुणतः स्वर्णकुम्भाशुजालैः । कान्ति कुस्सुधाब्वेः क्वचिदतिसिसिमयोतिभिभितिभाग::
शोभा श्लिष्यद्धिमानः क्वचिदिव गगनाभोगभाम्भिश्च कूटैः ॥२४॥
अन्तःपुर के मध्य में प्रविष्ट होजा। प्रस्तुत नरेश को अपना दर्शन न होने दें, क्योंकि तेरे दर्शन से उन्हें अपशकुन हो जायगा। हे शुक-शिशु ! तू सुरत-क्रीडा संबंधी वाक्यों के उच्चारण करने में उल्लासपूर्वक उत्कण्ठित होओ। हे मेना ! विशेष हर्षपूर्वक सुतिवचनों का पाठ कर। अयि राजाहसी ! तू किस कारण मधुर शब्द उच्चारण करने के लिए बाधा-शून्य स्थान पर नहीं जाती? हे सारस पक्षी ! तुम विशेष उच्चस्वरवाले शब्दों का उच्चारण करते हुए राजा सा० के दक्षिण पार्श्वभाग में संचार करनेवाले होकर गमन करो। हे हरिण ! प्रस्तुत राजाधिराज के याएँ पार्श्वभाग पर संचार करते हुए होकर शिकार योग्य हिरणों के स्थान (वन) में जाओ। भावार्थ- क्योंकि ज्योतिषज्ञों ने कहा है कि "यदि एक भी अथवा तीन, पाँच, सात और नव हरिण वामपार्श्व भाग पर संचार करते हुए बन की ओर जावें तो माङ्गलिक होते हैं। अत: प्रकरण में वृद्ध स्त्रियाँ प्रस्तुत यशोधर महाराज के शुभ शकुन के लिए उक्त यात मृगों के प्रति कह रही हैं। हे हाथियों के झुण्ड के स्वामी श्रेष्ठ हाथी ! तुम शुभ शकुन-योग्य चेष्टाएँ दिखाओ। हे उत्तमजाति-विभूषित घोड़े ! अच्छी ध्वनि-पूर्वक ( जलसहित मेघ-सरीखी व समुद्र-ध्वनि-सी ) ध्वनि (हिनहिनाने का शब्द ) फरो।
इसी अवसर पर 'कीर्तिसाहार' नाम के स्तुतिपाठक ने निम्नप्रकार तीन श्लोक पढ़े :
हे राजन् ! यह आपका ऐसा महल विशेषरूप से शोभायमान हो रहा है, जो किसी स्थान पर अपनी शुभ्र ध्वजा-श्रेणियों द्वारा ऐसी गङ्गा की लक्ष्मी ( शोभा ) धारण कर रहा है (गङ्गा नदी-सरीखा प्रतीत होरहा है ), जिसकी तरङ्गे वायु-पल से ऊपर उछल रही हैं। इसीप्रकार जो किसी स्थान पर अस्पष्ट लालिमा-युक्त सुवर्ण-कलशों की किरणों के समूह द्वारा सुमेरु पर्वत की शोभा वृद्धिंगत कर रहा है-सुमेरु-जसर प्रतीत हो रहा है एवं जो अत्यन्त उज्वल कान्तिशाली भित्ति प्रदेशों द्वारा क्षीरसमुद्र की शोभा रच रहा है
और जो किसी स्थान पर आकारा में विशेषरूप से विस्तृत होनेवाली शिखरों से हिमालय की शोभा ( उपमा-सहशता ) धारण कर रहा है ॥ २४२ ।।
* पाका शिशुः इत्यर्थः इति का। १. तथा गो-मम्-एवोऽसि यदि वा त्रीणि पन संभ नवापि या । वामपाधु गच्छन्तो मृगाः सर्वे शुभावहाः ॥ १ ॥
सं०.टी. पू. ३५२ से संकलित- सम्पादक २. उपमा वरामुच्चयालंकार ।