Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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हृवीय भाषासः
२११ अकाल्पविः-मणफिरणमध्ये विद्रुमसम्बपिम्नः क्षितिप किमिव शोभा भानुरिमिति । राजा- पुष युधि मम शत्रोः शोणितास्तिायां प्रतरदुपरि कोपाल्पाटर्स यहदास्यम् ॥२०॥ निशि मदनविनोदातासरे च प्रजानामुश्यनयनियोगाद्वाहमुदिक्तनिद्रः । इति वपुषि नितान्त बिम्रदम्भोजलक्ष्मीमष्यसि तपनरते देष सामान्यवृत्तिः ॥२१॥ भलकवास्थयमध्ये परामप्रसूति नवकिसलयशोभा कर्णपालीप्रदेशे। कृषकलशतटानो कुकुमस्येव रार्ग दधति रविमयूखाः प्रासरेतेऽवलास १२२॥ काश्मीरकेसररुनः करजक्षतामाः कान्ताधरतियतः शुकवस्नकल्पाः । सिन्दूरितारणतलास्सष देव चिर्त भानोः करा विविधघाटुतयाभयन्ते ॥२३॥
वि सौसशायनिकाना सूरूगीतामृतरसं का पूरा नयन् समाचरितगुरुदेववोपासनविधिः प्रसापनिधिः सकलजगम्यवहारामणीमंहग्रामणीरिख संभावयन् पुरोहितरुपनीतानि स्त्रस्त्ययममङ्गलानि भुणभोगभूषणाप्रतरगचिमिरम्मोपिवोरिभिःखाचल हब कामकोदामपितकोषिकामखलाभिरबलाभिः परिवृतः संपादितप्रभाववृत्तः पुरस्कृतमम्रो वसतिमिव प्रदक्षिणीकृत्य सवल्या धेनुं प्रथमतराषिर्भूतदर्शनै: कल्पतरुरिव कतिनिश्चित् प्रसूमैरुत्तसितशिखण्यदेवाः भूचिएका वि धवलाम्बरधरः समुद्र व सरस्नोमिकामरणः पीसरस्वतीरतिरहस्योपदेशविरसया बर्णमामाभ्यासमोरहस्पतिभ्यामिष पन्द्रकान्तकुण्डलाम्यामलतश्रवणः परेण पानिमाबिनोषितवाकल्पेनाध्यासिसस्तारी।।
समस्या-कारक कोई कषि पूँजता है-अस्पष्ट लालिमा-युक्त किरणों के मध्यवर्ती प्रवालों (मूंगों) सरीखा मण्डलशाली उदिव होगा हुमा सूर्य फैसी शोभा धारण कर रहा है? रामा-रेषिन ! रक्त से भरी हुई संग्राम-भूमि के कपर तैरता हुआ मेरे शत्रु का मुख कोप से पाटल (रक्त ) तुआ जैसी शोभा पारण प्रवासी शेमा सूर्य धारण कर रहा है। ॥२०॥ हे वेष! आप रात्रि में कामकीड़ा करने के परण और दिन में प्रवाभों की वृद्धि करने के अधिकार में संलग्न रहने से निद्रा-शून्य हो रहे हैं और पारीर में श्मयकार अधिकतप से रतनमल की शोभा धारण कर रहे हैं, अतः सूर्य सादृश्य प्रवृश्चि-युज हुवा दिव शेगा। अर्थात-बापकी सरावा धारण करता हुआ उदित हो रहा है ।। २१॥
ये प्रत्याष्टिगोचर होनेवाली सूर्यकिरणे प्रभाव पेक्षा में स्त्रियों के केशपाश-समूह के मध्यप्रविष्ट हुई पायग मणियों की उत्पत्ति धारण करती रोपांत-पपराग मषि-मी रक प्रतीत हो रही है और नियों के श्रमों के उपरिक्षन भाग में प्रविनवीन पक्ष्य की कान्ति धारण कर रही है एवं कमनीय कामिनियों के कुष (स्तन) काश-प्रदेशों पर प्राप्त हुई केसर की लालिमा-जैसी यन्ति धारण कर रही है ॥२२॥ हे राजन् ! ऐसी सूर्य-किरणें आपके चित्त में मान्त-प्रकार चाटुकारता (प्रेमस्तुति) पूर्वक प्रविष्ट होरही हैं। पर्वात -मापके चित्त में उल्लास-आनन्द-सा कर रही हैं। जो कुछकुम-पराग (केसर) जैसी है। जिनकी कान्ति नव चिहों-सरीखी है। जो सियों के नोटों की कान्ति (शोमा) धारण कर रही हैं और जो तोते की घोच-सी हैं ता जिन द्वारा गृहों की भमभूमियाँ ( आँगन) रतवर्ण-शाली की
॥२३॥ 1'स्पन्विति' कसा। 1. प्रश्नोत्तर उपमालंकार । २. पतिरेक र तुल्योगिता-अलंकार। ३. अपमानकार । ४. उपमालंकार।