Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
सृतीय आश्वासः
२२१ पुण्यपापे नृणां देव ते च स्वाभाविक न हि । कि तुम समीक्षातस्तो सुधीर्म won नरस्य बद्धहस्तस्य पुरी भक्ते कृतेऽपि यत् । अशक्तं मखनिक्षेपे त क समामयेत ॥८॥ देवेकशरणे पुंसि वृथा कृष्यादयः क्रियाः । अकृत्वा फैघिदारम्भमाकापाकवली भवन ॥४९॥ देवावलम्बनक्सः पुरुषस्य हस्तादासाधितान्यपि धनानि भवन्ति चूरे । आनीय रत्ननिचयं पथि जातनि जागर्ति तन्न पथिके हि न जातु दैवम् ॥५॥
किं च । विहाय पौरु यो दि दैवमेवावलम्पते । प्रासादसिंहवत्तस्य मूनि तिष्ठन्ति वायसाः ॥११॥ का आग्रह छोड़ देना चाहिए ॥ ४६॥ हे राजन् ! मनुष्यों द्वारा पूर्वजन्म में किये हुए पुण्य व पापकर्म 'देव' शब्द के अर्थ हैं और वे ( पुण्य-पाप) निश्चय से स्वाभाविक (प्राकृतिक ) न होते हुए नैतिक व अनैतिक पुरुषार्थ से उत्पन्न होते हैं। अर्थात्-रामचन्द्र-आदि महापुरुषों की तरह नैतिक सत् प्रवृत्ति करने से पुण्य उत्पन्न होता है और रावण-आदि अशिष्ट पुरुषों की तरह नीति-बिरुद्ध असत् प्रवृत्ति करने से पाप उत्पन्न होता है, इसलिए कौन विद्वान पुरुप देव ( भाग्य ) का आश्चय लेगा? अपितु कोई नहीं लेगा। निष्कर्ष-भाग्य-भरोसे न बैठकर सदा उद्यमशील होना चाहिए ॥ १७॥ जो देष (भाग्य) दोनों हस्तों की मुट्ठी बाँधे हुए ( भाग्य-भरोसे बैठे हुए) मनुष्य के सामने उपस्थित हुए भोजन को उसके मुँह में लाकर स्थापित करने में समर्थ नहीं है, उस देव का कौन पुरुष अवलम्बन करेगा? अपितु कोई नहीं अवलम्बन करेगा।
___ भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकार सोमदेवसूरि' और भागुरि विद्वान ने भी कहा है कि जिस प्रकार भाग्यवश प्राप्त हुआ अन्न भाग्य-भरोसे रहनेवाले व क्षुधा-पीड़ित मानव के मुख में स्वयं प्रविष्ट नहीं होता किन्तु इस्त-संचालन-आदि पुरुषार्थ द्वारा ही प्रविष्ट होता है उसीप्रकार केवल भाग्य-भरोसे रहनेवाले ( उद्यमहीन) मानव को कार्य में सफलता नहीं मिलती किन्तु पुरुषार्थ करने से ही मिलती है। इसलिए उक्त मंत्री कहता है कि हे राजन् ! कार्य-सिद्धि में असमर्थ देव को कौन स्वीकार कर सकता है ? अपितु कोई नहीं। अतः पुरुषार्थ ही प्रयोजन-सिद्धि करने के कारण श्रेष्ठ है न कि देव ॥४८॥ वैष (भाग्य) को ही शरण (प्रयोजन-सिद्धि द्वारा आपत्ति-निवारक ) माननेवाले के यहाँ विशेष धान्यादि उत्पन्न करने के उद्देश्य से कीजानेवाली प्रत्यक्ष प्रतीत हुई कृषि व व्यापारादि क्रियाएँ ( कर्त्तव्य ) निरर्थक हो जायगी इसलिये लोक में कृषि व व्यापारादि उद्यम न करके केवल भाग्य-भरोसे बैठनेपाला मानव बाकाश में ही भोजन-पास (कौर) प्राप्त करता है। अर्थात्-उसे कुछ भी सुख-सामग्री प्राप्त नहीं होती ॥६जिसप्रकार रत्नराशि लाकर मार्ग पर निद्रा लेनेवाले पथिक ( रस्तागीर) का भाग्य उसकी रनराशि की कदापि रक्षा नहीं कर सकता, क्योंकि वह चोरों द्वारा अपहरण कर ली जाती है उसीप्रकार देव (भाग्य) सभाश्रय लेनेवाले पुरुष के प्राप्त हुए धन भी निश्चय उसके हाथ से दूर चले जाते हैं-अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं। अर्थात-उसीप्रकार उसका भाग्य भी उसके धन की रक्षा नहीं कर सकता ॥५॥
राजन ! उद्यम को छोड़कर केवल भाग्य का ही आश्रय करनेवाले मानव के मस्तक पर ससप्रचार काक-फौए बैठते हैं जिसप्रकार महल के कृत्रिम (बनावटी ) सिंह पर कौए बैठते हैं। अर्थात् ज्यामीन
१. थापालंकार । २. आक्षेपालंकार ।। ३. तपा च सोमदेवरिः-"न खल्ल देवमौहमानस्य कृतमप्यन्न मुखे स्वयं प्रविशचि - ४. तथा च भागरिः-प्राप्तं दैववशादन्नं क्षुघातस्यापि चेच्छुभं । तावन्न प्रनिशे पत्रे यानत्प्रेषति नोकरः ॥१॥
नीतिवाक्यामृत ( भाषाटीमा समेत ) पू. ३६५-३६९ से संगीत-संपादक ५. भाक्षेपालंकार। ६. उपमालंकार। ५. दृष्टान्तालंकार ।