Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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द्विवीय आवास:
१९७ समानम्, “उपाहूसाजानेरहमाननोदीई डिण्डोरपिण्डपुण्डरीकषिदिसोपहारम्, अनेकप्रहिततहस्तविन्यस्तषस्तुविरविसरका नम्, मवसर्पितवारविलासिनीसंचरणवाशालतुलाकोटिक्वणिताकुलितविनोदवारलम् ।
कि प्रजापतिपुरमिवाप्यनुर्वासोधिष्ठितम्, पुरंदरागारमिषाप्यपारिजासम्, चित्रमानुभव नमिवाप्पमस्यामलम, धर्मधाम इवाप्यारोहितम्याडारम्. पुण्यजनावासभिवानराक्षसभाकम्, प्रचेतःपस्स्यमिबाप्पालाश रम्, वातोवलितमिवाप्यअहॉपर अप्रभूमि या रकमण्डप की पूजा की गई है तथा जहाँपर चारों ओर फैली हुई वेश्याओं के प्रवेश से मधुर शब्द करते हुए नूपुरों के मधुर शब्दों (मनकारों) द्वारा क्रीड़ा करनेवाली राजहंसियाँ व्याकुलित की गई है।
प्रस्तुत 'त्रिभुघनतिलक नाम के राजभवन में विशेषता यह थी कि वह निश्चय से ब्रझनगर के समान मनोझ होता हुआ दुर्वास (दुर्वासा आदि ऋषियों) से अधिष्ठित नहीं था। यहाँपर विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि जो ब्रह्मनगर ( स्वर्ग ) जैसा मनोश होगा, यह दुर्वासा आदि ऋषियों से युक्त नहीं था, यह कैसे हो सकता है ? अतः इसका परिहार यह है कि जो ब्रह्मनगर (स्वर्ग) जैसा मनोज्ञ होता हुआ निश्चय से दुर्वासों ( मलिन बसोंवाले मनुष्यों ) से युक्त नहीं था। अर्थात्-दिव्य व उज्ज्वल वसोवाले मानवों से अधिष्ठित था। जो इन्द्रनगर (स्वर्ग) समान रमणीक होता हुश्रा अ-पारिजात ( कल्पवृक्षों के पुष्पों से रहित ) था। यह भी विरुद्ध मालूम पड़ता है, क्योंकि जो इन्द्रनगर-जैसा मनोम होगा, यह कल्पवृक्ष के पुष्पों से रहित किसप्रकार होसकता है ? अतः समाधान यह है कि जो इन्द्रनगर-सरीखा रमणीक व निश्चयसे अप-अरि-जात-शत्रु समूह से रहित था।
इसीप्रकार जो चित्रभानुभवन--अनि स्थान-सरीस्त्रा-होता हुआ निश्चय से अधूमश्यामल (धूम से मलिन नहीं) था। यहाँ भी विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि जो अग्नि का निवासस्थान होगा, वह धूम की मलिनता-शून्य किसप्रकार हो सकता है? इसका समाधान यह है कि जो चित्र-भानु-भवन-अर्थात्-नानाप्रकार की रत्न-किरणों का स्थान होता हुआ निश्चय से अधूमश्यामल-- धूम-सरीखा कृष्ण नहीं था ( उज्ज्वल ) था। जो धर्मधाम ( यमराज-मन्दिर-) समान होकर के भी बदुरीहित व्यवहार-शाली था। अर्थात्-दुश्चेष्ठा-युक्त व्यवहार से रहित था। यह भी विरुद्ध है; क्योंकि जो यमराज का गृह होगा, वह दुश्चेष्टावाले व्यवहार से शून्य कसे होसकता है ? अतः परिहार यह है कि जो धर्मधाम ( दानादिधर्म का स्थान ) है और निश्चय से अदुरीहितव्यवहार ( पाप
एबहार से शून्य) था। जो पुण्यजनावास ( राक्षसों का निवास स्थान ) होकर के भी अराक्षसभाव (राक्षस पदार्थ-रहित ) था। यह भी विरुद्ध मालूम पड़ता है, क्योंकि जो राक्षसों का निवास स्थान होगा, वह राक्षस-शून्य कैसे होसकता है? इसलिए इसका समाधान यह है कि जो पुण्यजनावास (पुण्य से पवित्र हुए लोगों का निवास स्थान) था और निश्चय से अराक्षसभाव-अदुष्ट परिणामवाले सझन लोगों से विभूषित था। जो प्रचेतःपस्त्य (वरुण-जल देवता के निवासस्थान-सरोया-जलरूप ) होता हुधा निश्चय से अजड़ाशय (श्लेष-अलंकार में और ल में भेद न होने के कारण अजलाशय) अर्थातजलाशय ( तालाव-आदि) नहीं था। यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो जल देवता का निवास स्थान होगा, षड् जलाशय से रहित फिसप्रकार होसकता है ? अतः इसका परिझार यह है कि प्र-चेतः पस्त्य (प्रशस्त चित्तशाली सजन पुरुषों का स्थान) और निश्चय से अजड़ाशय (भूर्खता-युक्त चित्तवाले मानषों से रहित ) था। इसीप्रकार जो वातोदवसित (पवनदिक्पालगृह) सरीखा होकर के भी चपलनायक ( स्थिर स्वामी-युक्त) था। यहाँ भी विरोध प्रदीत होता है, क्योंकि जो पवनदिक्पाल का गृह होगा, वह स्थिरस्वामी-युक्त फैसे होगा? श्रतः
* उपाइलाजानेयहय' क-1 A 'धानीताः फुलौनाश्याः' इति टिप्पणी ।