Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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बस्विकरच पूज्यन्ये संत लिरोम्बति मीसमिाजबानेस्वयौवनं विनय समसंगमेग..११॥
विवारीभिचरित्रपवित्र पुन, स्वपि स्वमायादेव दिवासि महामागमनसि विपिशवास्ति। अवमीय हुमा सरीला ना होजाता है। अतः हे पुत्र ! इस युवावस्था को सपनों की संगति में मातीत करो।
__विशद विवेचन-पन्द्रप्रभ चरित्र के रचयिता पोरनन्दि आचार्य का प्राकरणिक प्रवचन हदयान करने खायक है, जिसे भीषेण राजा ने जिनदीक्षा-धारण की प्रयाणयेला में अपने युवराज-वीर पुत्र भीषमा (चन्द्रप्रभ सीर्थहर की पूर्व पर्याय ) के लिए दिया था
हे पुत्र! तुम विपत्ति-रहित या जितेन्द्रिय और शान्तशील होकर अपने तेज (सैनिक पेशशठि) से शत्रुओं का उदय मिटाते हुए समुद्रपर्यन्त पृथ्वीमण्डल का पालन करो॥१॥ जिसतय सूपादन से धक्रयाक पक्षी प्रसन्न होते हैं उसीतरह जिसमें सव प्रजा तुम्हारे अभ्युदय से खेदरहित (सुखी) हो ही गुप्तचरों (जासूसों ) सारा देख जानकर करो ।। २॥ हे पुत्र ! वैभव की इच्छा से तुम अपने हिसपी लोगों को पीड़ा मत पहुँचाना, क्योंकि नीति-विशारदों ने कहा है कि प्रज्ञा को खुश रखनाअपने पर गुर जाना धायः बजारमा अवदा परना-ही मन का मुख्य कारण है ।। ३॥ जो राजा विपत्ति-रहित होता है उसे नित्य ही संपत्ति प्राप्त होती है और जिस राजा का अपना परिवार पशवी है, उसे कभी विपत्तियों नहीं होती। परिवार के यशवर्वी न होने से भारी पिपत्ति का सामना करना पड़ता है ।। ४॥ परिवार को अपने वश करने के लिए तुम कृतज्ञता सद्गुण का सहारा लेना। Baw पुस्व में और सब गुण होने पर भी यह सब लोगों को विरोधी बना लेता है॥५॥
हे पुत्र! तुम कलि-दोष जो पापाचरण है उससे बचे रहकर 'धर्म की रक्षा करते हुए 'बई और 'काम' को बढ़ाना। इस युक्ति से जो राजा त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) का मेषन । मना है, वह ऐहिक व पारलौकिक सुख प्राप्त करता है ॥ ६॥ हे पुत्र! सावधान रहकर सदा स्त्री व पुरोहित-आदि बड़े ज्ञानवृद्धों की सलाह से अपने कार्य करना। गुरु ( एक पक्ष में
माय और दूसरे पक्ष में वृहस्पति ) की शिक्षा प्राप्त करके ही नरेन्द्र सुरेन्द्र की शोभा या बैमा से प्राप्त होता है॥७॥ प्रजा को पीड़ित करनेवाले कर्मचारियों को दंड देकर और प्रजा के अनुकूल कर्मचारियों को दानभानावि से तुम बढ़ाना। ऐसा करने से बन्दीजन तुम्हारी कीर्ति बार्शन करेंगे और उससे तुम्हारी कीर्षि दिम्दिगन्तर में व्याप्त होजायगी॥ | तुम सा ।
अपनी पिसवृत्ति (मानसिक अभिलषित कार्य) को छिपाये रखना । काम करने से पहले यह प्रष्ट हो कि तुम क्या करना पाहते थे? क्योंकि जो पुरुष अपने मन्त्र ( सलाह.) को छिपाये रखते।
और अनुषों के मन्त्र को फोड़-फाड़कर जान लेते हैं, वे शत्रमों के लिए सवा अगम्य (ब जीतने योग्य). यते ॥६॥ जैसे सूर्य तेज से परिपूर्ण है और सब आशाओं (दिशाओं) को व्याप्त किये रहता। स्वा भूमृत् जो पर्वत है उनके शिर का बलकार रूप है उसके कर (किरणें ) बाधाहीन होकर पृथ्वी पर पढ़ते है, वैसे ही तुम भी तेजस्वी होकर सबकी आशाओं को परिपूर्ण करो और भूभृत् जो राजा लोगों उनके सिरताज बनो, तुम्हारा कर (टेक्स ) पृथ्वी पर बाधाहीन होकर प्राप्त हो अनिवार्य हो ॥१०॥ निक-प्रकरण में हे मारिदच महाराज! मेरे पिता ने मुझे उक्त प्रकार की नैतिक शिक्षा दी ॥१६॥
नीलिमार्ग और विनयशीलता की चतुराई के कारण विशेष मनोज चरित्र से पवित्र हुए हे पुत्र ! अर व्य स्वभाव से ही निदोष और पवित्र मनशाली हो तम भापको कुछ भी नैतिक शिक्षा पेने योग्य नहीं है।
देखिए नामचरित्र सर्ग / श्लोक ३ से ।। २. उपमालद्वार ।
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