Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्लिलामभव्ये र देवमिव गाव सोन, देव देवमिम सुभगालो समस्या , देव देवमिव सर्व संस्थान, देव देवमिवावना वयसा दितीया स्तन्तस्, देव देवमिवानुमारितारमायुषण तारिकमाः, देव देवमिव पावि गवा, देव देवमिव शीयांस बलेन, देव देवमिव भरडोरक्मानकेन,
है। हे राजन् ! सत्वगुण (प्रशस्त मनोवृत्ति ) से विभूषित होने के कारण वह उसप्रकार वासव ( इन्द्र) है जिसप्रकार भाप सत्वगुण' (प्रताप, ऐश्वर्य व पराक्रम) से अलंकृत होने के कारण पासव ( इन्द्र) हैं। हे राजन् ! समप्रकृति (प्रशस्त स्वभाव) से मखित होने के कारण जिसका दर्शन दूसरों को उसप्रकार प्रीविजनक है जिसप्रकार बाप का दर्शन समप्रकृति ( सज्जन प्रकृति ) के कारण दूसरों को प्रीतिजनक है।
राजन् ! उसकी शारीरिक आकृति उसप्रकार सम ( समान, सुन्दर और सुडौल ) है जिसप्रकार आपकी शारीरिक माकति सम ( समान, सुन्दर और सुडौल ) है। हे देव ! वह घोड़ारत्न युवावस्था संबंधी मर क्सा-भाग में उसप्रकार आरूढ़ है जिसप्रकार श्राप युवावस्था संबंधी दूसरी दशा में प्रारून ..।
भावार्थ-शास्त्रकारों ने घोड़े की आयु ३२ वर्ष की निरूपण की है, उसके भीतर उसको दश दशाएँ (अपत्याएँ-माग) होती हैं, जिनमें से एक दशा की आयु ३ वर्ष, २ माद और १० दिन की होती है। प्रति-३२ वर्ष में १० का भाग देने से प्रायः उक्त दशा की आयु निकलती है। प्रकरण में ध्यान देने पोग्य यह है कि 'शालिहोत्रं नाम का अध( घोड़े) सेना का अध्यक्ष यशोधर महाराज से प्रस्तुत 'विजस्वैनतेय' नामक प्रमुख घोड़े के प्रशस्त गुणों का निरूपण करता हुआ उसकी जवानी का निरूपण कर रहा है कि हे राजन् ! वह मेष्ठ घोड़ा तीन वर्ष, दो माह और वश दिनवाली पहली अवस्था (किशोरावस्था)
पर सरके का दूसरः जनाबी लपता रद हो चुका है, जिसके फलस्वरूप यह समस्त कर्म (मारवाहन व युद्ध करना-आदि) को सहन करने में समर्थ, विशेष शक्तिशाली, बुद्धि-सम्पन्न और सवारी के योग्य होचुका है, अतः श्रेष्ठ घोड़ा है। इसीप्रकार हे राजन् ! वह अपनी श्रायु (३२ वर्ष) की उक्त दशों पशाएँ उसप्रकार भोगेगा (दीर्घायु होगा जिसप्रकार आप अपनी आयु की दशों दशाएँ भोगोगे (तीय होंगे)। हे राजन् ! वह पार्थिवी छाया ( मन व नेत्रों को भानन्य उत्पन्न करनेवाली, सचिमण, गम्भीर, महान, निपल वं अनेक वर्णयुक्त प्रशस्त कान्ति) से उसप्रकार अलंकृत है जिसप्रकार आप पार्थिवी छाया (राजकीय तेज अथवा शारीरिक प्रशस्त कान्ति ) से विभूषित हैं। हे राजाधिराज ! यह अथरत विशेष क्ल ( भारवहन आदि की सामर्थ्य ) शाली होने के फलस्वरूप उसप्रकार विशेष महान् (गुस्वर) है जिसप्रकार आप बल (पराक्रम, सैन्य अथवा शारीरिक शक्ति) शाली होने से विशेष महान हैं।
हे देव ! वह अश्वरत्न आनूक’ (विशेष शारीरिक शक्ति ) से सम्पन्न होने के कारण उसप्रकार कठौरव (सिंह) है जिसप्रकार आप अनूक (प्रशस्त कुलशाली ) होने के कारण कण्ठीरव (राज-सिंहसमस्त राजाओं में श्रेष्ठ है।
१. उच-'तेजोविभूतिविकान्तः सत्वमन्दं विनिर्दिशेत् ॥ सं.टी.पू. ३०७ से संकलित-सम्पादक १. तथा चोक्तम्-अथ कासी दशा । तत्रोच्यते-- 'आयु निश्तं वेषां दशा दश दीर्तिताः । योऽन्दाष दशान्ति हो चलो एक सतार ४९ ३. उच-'सर्वकर्मसको हप्तः परां बुनिमुपागतः। द्वितीयस्यो दशायां स्यामा प्राप्तघाहनः ॥१॥ ४. उच-अनेकवर्णा सुस्निग्धा गम्भीरा महती स्थिरा। प्रशस्ता पार्थिव छाया मनोदृष्टिप्रसादिनी ॥१॥ ., उलंक आनन-'अन्वयेन बलेन ५. तथा चोप-अनूपं शौलकुलयो' इति विश्वः ।।
Raag. ३० से संक्रमित–सम्मान