Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकपम्पूकाव्ये सकलजनविरोधोमयोपोपाप्रसाdिaeeमीपणापः श्रीपोपयोगातिययनियमीतविश्वविरभरामस्कटका: प्रसीदमारिवामन्दाकिनीप्रवाहविनितिनिखिलसलासरावतरणः स्वस्थ रोषोपयो: समतामानिमियो भूमिभुजः। मम्मानिसका दुर्गम भाविकामोम् । स्रागार्षिका बाववर्य जनोऽथों गौण्डीक्षण क्षितिपान्तरेषु ॥ १५ ॥ ( समान । साथरोग बाविसामान्य, रामुगलों बारा कीजानेवाली चरण-कमलों की सेवा से प्रकट होगाम था। मान-अब यशोमहाराज, जिन पर प्रसन्न होते थे, तब उन मित्रराजाभों के शत्रु सन पर कमलों की सेवा करते थे, जिसके फलस्वरूप मित्र राष्ट्रों के पश्चाङ्ग मंत्र का प्रभाव प्रकट होजायमा। जिसके अपित होनेपर शत्रुभूत राजालोग, सकल-जगत्-व्यतिरिक्त उद्योग-योग-उपाय-प्रसाधितप्रक-मानीव-प्रवृश्चियली थे। अर्थात्-जिसके रुट होने पर शत्रुभूत राजाओं ने, लोकोत्तर उद्यमशाली समाधि ( धर्ममान) की प्राप्ति के उपायों (वैराग्य-आदि ) द्वारा उत्कृष्ट आत्मकल्याण की अनम्तशानादिलावण्वानी प्रवृति प्राप्त की थी और जिसके प्रसन्न होने पर भित्रभूत राजालोग सकल-जगत्-व्यतिरिक्तभयोग-योग-उपाय-प्रसाधित-प्रकट-माल्मीय-प्रवृतिशाली हुए। अर्थात्-जिसकी प्रसन्नता होने पर मित्र भूव गजामों ने खोकोचर उद्योग (शत्रुओं पर पढ़ाई-आदि) किया जिसके फलस्वरूप उन्होंने योग (गैरमौजूद राज्यादि की प्राप्ति ) के उपायों ( साम, दान, दंड व भेदरूप साधनों) से अपनी भलाई करनेवाली ऐसी प्रवृत्ति स्वीकार की, जो प्रकृष्ट ( असाधारण ) थी। जिसके कुपित होने पर शत्रुभूत राजा लोग, श्रीफलउपयोग-प्रतिशय-विशेष-वशीकृत-विश्व-विश्वभराभृत्-कटकशाली हुए। अर्थात्-जिसके रुष्ट होजानेपर शत्रुभूत राजाओं ने वेल-फलों व पचों का विशेष भक्षण करने से विशेष रूप से समस्त पर्वतों के तट स्वीकार किये थे और जिसके प्रसार होनेपर मित्रभूत यजालोग, श्री-फल-उपयोग अतिशय-विशेष-वामीकृतविश्व-विश्वभराभृत् कटकशाली थे। अर्थात्-जिन मित्रमूत राजाओं ने लक्ष्मी (राज्य लक्ष्मी व धनादि) के फलों ( समस्त इन्द्रिय सुखों ) का अधिक आस्वादन ( उपभोग ) करने के हेतु राजाओं की सेनाएँ स्वीकार की थी और जिसके कुपित होने पर शत्रुभूत राजा लोग, प्रसीवात-अनवथ-विद्या-मन्याकिनीप्रवाह-विनिर्मूलित-निखिलसुखान्तराय-तरुशाली थे। अर्थात्-प्रसमहोनेवाली निर्दोष विद्या ( कर्म-मल फज से रहित और शानावरणादि घातिया कमों के सय से सत्पन होनेवाला केवलझान) रूपी गङ्गाप्रवाह धारा, जिन्होंने सुखों के विघ्न-बाधा रूप वृष जड़ से उखाड़कर फैक दिये थे। अर्थास---यशोधराजाके कोपभाजन शत्रुभूत राजा बन में जाकर दोचित होजाते थे, जिसके फलस्वरूप वे, ज्ञानाचरण-मादि घातिया कसों देवर से उत्पन्न होनेवाली निर्दोष केवलबान रूप षिथा की गङ्गा-पूर से एन विघ्न-बाधा रूप वृक्षों को जड़ से उत्पड़कर फेंक देते थे, जो कि परमानन्द-रूप मोक्षसुख की प्राप्ति में विघ्न बाधाएँ उपस्थित करते थे। एवं जिसके प्रसा होनेपर मित्रभूव राजा लोग प्रसन्न झेनेवाली निर्दोष विद्या (भावीक्षिकी, यी, वार्वा व दंडनीति रूप राजाषिया) रूपी गंगा के प्रवाह ( निरन्तरस्मवृत्ति) हाय उन विप्ररूप वृक्षों (शत्रु-छादि) जड़ से उखादकर फेंक देते थे, जो किसनके समस्त इन्द्रिय सुखों में विनयाधाएँ उपस्थित करते थे।
याचकों के लिए इच्छित वस्तु देनेवाले जिस यशोर्ष महाराज ने निम्न प्रकार दो वस्तुएँ ही दुर्लभ यी थी। १-पानियों को समस्त पृषियी-न पर पापक मनुष्य की प्राप्ति दुर्लभ थी, क्योंकि यह समस्त पविधीमी याचकों के मनोरथ पूर्ण करावेवा या । २-पान और पराक्रम में प्रसिद्ध हुए 'शौण्डीर सन्द की प्राप्ति भी दुर्लभ थी क्योंकि समस्त्र भूमण्डल पर इसके सहीला दानवीर , परामशाही कोई नदी मार ॥४॥
1.शेखपमानकार । २.निन्दास्तति-अलार।