Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्विलकचम्पूकाव्ये परमात् पूरे पर भूपा म गुयोरतिकिरियर । मध्यमोऽपि स्मृतस्तेषामुत्तमः प्रथम सः ॥ ४९ ॥ मम्म एसाबलः कश्रिदेष नून महीपतिः। प्रबभूव परं यस्मालक्ष्म्या सह सरस्वती ॥ ५० ॥ बस्मातशेषगुमरस्ननिधर्महीशादसे गुणा जाति पथिरे महान्तः । सौ हरायमरधेनुषु कामदत्वं गाम्भीर्थमम्बुधिषु भास्वति च प्रतापः ॥ ११ ॥
वस्य पराभ्यासावसरेषु बह मुष्टिता न वळविभाणनेशु, पस्त्रमनेषु भुजगता में पीकविलसितेषु, भूषणेषु विकृतिसनं गमयोनिम्भितेषु, मदगोधु, एरप्रणेयता न कार्यानुष्ठानेपु, विलासिनीगतिपु स्खलितता म प्रतापेषु, मिरिकणेषु चपलता भारम्भेषु ।
भूतपूर्व ( पूर्व में हुए। व भविष्य में होनेवाले राजा लोग, जिस यशोधमहाराज से गुणों से विशिष्ट अतिशयवान् ( अधिक गुणशाली ) नहीं हुए, इसलिए यह उनमें मध्यम ( जघन्य ) होता हुमा मी सर्वोत्कृष्ट व प्रथम (प्रमुख) स्मरण किया गया था। यहाँपर विरोध प्रतीत होता है, स्योंकि जो राजाओं में मध्यम ( जघन्य ) है, वह उत्कृष्ट किसप्रकार होसकता है ? इसका समाधान यह है कि जो उनमें मध्यम (मध्यवर्ती ) होता हुआ अपि-निश्चय से सर्वोत्कृष्ट व प्रमुख था' || ४६ !! यह शोघेराजा निश्चय से एक ऐसा अपर्व अनौखा) पर्वत था, जिससे लक्ष्मी के साथ सरस्वती रूप नदी प्रवाहित हुई। भाषार्थ-लोक में जिस पर्वत से सरस्वती नदी प्रवाहित होती है, उससे लक्ष्मी नहीं निकलती परन्तु प्रस्तुत यशोधराजा रूप पर्वत से लक्ष्मी के साथ सरस्वती रूपी नदी भी प्रवाहित हुई। भवः वास्तव में यह अनौखा पर्वत था ॥५॥ पृथिवी के स्वामी जिस राजा से, जो कि समस्त गुण रूप रखों की बरयनिधि था, निम्न प्रकार प्रत्यक्षीभूत महान् गुण संसार में विस्तृत व विख्यात हुए। उदाहरणार्थमीनारायण में अपूर्व घोरता, कामधेनुओं में अभीष्ट फल वेने की शक्ति, समुद्र में गाम्भीर्य, और सूर्य में प्रताप प्रसिद हुआ। भावार्थ-श्रीनारायण- आदि में अपूर्व वीरता-आदि महान गुण इसी राजा से ही प्राप्त किने हुए होकर लोक में विस्तृत व विख्यात हुए; क्योंकि यह समस्त गुण रूप रत्नों की अक्षयनिधि था ॥ ५ ॥
धनुष पर बाण चढ़ाने के अवसरों पर जिसकी बमुष्टिता ( हाथ की मुट्ठी बाँधना ) थी परन्तु याचकों के लिए धन देने के अवसरों पर ववमुष्टिता (कृपणता) नहीं थी। जिसकी भुजगता ( अपनी भुजाओं पर कर्पूर व चन्दनादि सुगन्धित वस्तुओं का लेप) पन्त्र रचनाओं (लेपन-क्रियाओं) में थी। परन्तु इन्द्रिय-चेष्टाओं में मुजगता (विषमता-चंचलता) नहीं थी। अर्थात्-जितेन्द्रिय था। शिसा विकृषिदर्शन (नानाभाँति के आकारों का विलोकन ) आभूषणों में था परन्तु जिसके चिप्स प्रसारों में विकृतिदर्शन (कुचेष्टा) नहीं था। अर्थात् नानाप्रकार की आकृतिवाले कर्ण-कुण्डल-आदि आभूषणों से अलंकव होते हुए भी जिसकी मनोवृत्ति कुचेष्टा-युक्त नहीं थी। जिसकी परप्रणेयता ( इस्तिपम प्रेरणवामहायतों द्वारा लेजाया जाना ) हाथियों में थी परन्तु जिसके कर्तव्यपालन में परप्रणेयता (पराधीनता) नहीं थी। अर्थात् जो कर्तव्यपालन में दूसरों की अपेक्षा न करने के कारण स्वाधीन था। जिसकी स्खलितसा (शुक्रधातु का त्याग) कमनीय कामिनियों के साथ रतिषिलास में थी। अर्थात्-जो अपनी रानियों के साथ रविविलास करने में वीर्यधातु का वरण करता था परन्तु जिसकी प्रतापशक्ति ( सैनिक शक्ति व खजाने की शक्ति) में कदापि स्खलितता-ज्ञीणवा - नहीं थी। इसीप्रकार घपलवा (चंचलता) जिसके केवल हाथियों के कानों में थी। अर्थात्-जिसके हाथियों के कान चंचल थे परन्तु जो कर्तव्य आरम्म
'चामरेप' इति का 17. उपमासंकार । २. मतिरेक प रूपकालंकार । ३. समुन्द्रयालंकार ।