Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रथम आभास
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अनलकारमपि कपोलकान्तिकुण्डलिसमुखमण्ससम् , अनावरणमपि वपुःप्रभापटलदुकूलोत्तरीयम् , अरण्यप्रेम्णा दमन्याजेन कमलर इव भुजउनमना लक्षाराममिवोरुमिषेण कालीकाण्डकाननमित्र चलनलोणाशोकवनमिय च सहानगमानम्, इन्दुष्टगेशाग तिसंपादितमित्र कुन्तलघु, सुरतस्ककप्रसाधितमिवालिकयोः, कामकोदपउकोटिटितमित्र भ्रपु, रमाकरणकोरकी. यमिन नेत्रेषु, सरकारपुछोडिखितमिव पक्ष्मानु, रतिक्रीयाकीरास्त्रलावण्यविहितमिव नामयोः, लक्ष्मीविभ्रमादर्शविनिर्मितमिव कपोखेषु, कीर्तिसरस्वतीविलासदोलतमिव भोत्रेषु, संध्यारुणामतकरखण्डनियंतितमिवाधरसोस्तन्मुनिकुमारकयुगलं विलोक्येदं वृत्तमपाठीर---
'बालनुमः स्वसूलतोहसिकान्तमूर्तिजातः कथं पथि करालकृशानुवृत्तेः।
आः पाप पुष्पार संप्रति कस्ताम्या केली कृते यवनयोस्त्वम् पिक्षितोऽसि ॥ १५० ॥ कर्ण-वे रहित होहीजो खेल शाट होना था-'नों-जिसका मुखमण्डल गालों की कान्तिरूपी सुवर्णमयी कुएडलों से ही व्याप्त है। संधान वस्त्रों से रहित होकरके भी जो मानों-शारीरिक प्रभापटल (कान्ति-समूह, रूपी पट्टदुकूल सम्बन्धी उपरितन वस्त्रों से ही अलंकृत है। जो ऐसा प्रतीत होता था-मानोंवन में प्रेम होने के कारण मनोज्ञ मुख के मिष से कमलवन को साथ ले जारहा है और भुजाओं के बहाने से लताओं के बगाचे को, ऊरुओं। जंघात्रों ) के बहाने से केलों के स्तम्भशाली वन को श्रीर चरणों के मिष से अशोक वन को साथ ही साथ लेजाता हुआ जारहा है। जो, अतिशय मनोश केशों से ऐसा विदित होता थामानों-जिसके केशसमूह, चन्द्र-मृग की नेत्रों की कान्ति से ही रचे गए है । ललाटों की मनोशता से जो ऐसा मालम पड़ता था--मानों-कल्पवृक्ष के पट्टको (तख्तों) से ही रचा गया है। जो भ्रुकुटियों की मनोज्ञता से मानों कामदेव के धनुष के अयभाग से ही रचना भाया है। जो मनोज नेत्रों से मानों - लाल, मधेत और कृष्णवर्ण-शाली रत्नसमूह से ही घाटेत किया गया है। जो मनोहर नेत्र-रोमों से, मानों-कामदेव के बाणों के पुलों ( प्रान्तपत्रों ) से ही निर्मित किया गया हो। जो मनोझ नासिका से ऐसा विदित होता था-मानों-उसकी नासिका, रति के क्रीड़ा करने योग्य शुकों की चचुपुटों की कान्ति से ही रची गई है। जो गालों के सौन्दर्य से ऐसा मालूम पड़ता था, मानों-लक्ष्मी के कीड़ा-दर्पण से ही जिसकी सष्टि हुई है और श्रोत्रों के लावण्य से ऐसा प्रतीत होता था—मानो-कीर्ति और सरस्वती के क्रीडा करने लायक झूलों से ही निर्मित किया गया है। जो लालिमा-शाली ओष्ठों से ऐसा आन पड़ता था-मानों-सन्ध्या-सम्बन्धी पव्यक्त लालिमाषाले चन्द्र-खण्डों से ही निर्मित किया गया है। प्रस्तुत यतालिक द्वारा पठित श्लोकआपकी बहिन रूपी बेलड़ी से उत्पन्न होने के कारण अतिशय मनोझ यह 'अभयरुचि' नाम का पालक रूप वृक्ष भयानक दुःखाग्नि के मध्य में किसप्रकार प्राप्त हुआ ? हे पापी कामदेव ! अब वर्तमान समय में तुम्हारी कीड़ा का निमित्त ( पृथिवी पर ) कौन पुरुष वर्तमान है, जिसके कारण तुम इसके विषय में अनादर-युक्त होरहे हो। अथवा पाठान्तर में यह अभयरुचि रूप वृक्ष, जो कि अभयमतिरूपी शाखा के प्रादुर्भाव से मनोन मूर्ति है, भयानक दुःखानि के मध्य कैसे प्राप्त हुमा ? हे पापी कामदेव ! अब वर्तमान मैं तुम्हारी क्रीडा-निमित्त दूसरा कौन होगा ? जिस कारण तुम ( पक्षान्तर में मारिदत्त राजा) इन दोनों में निरादर-युक्त होरहे हो। अभिप्राय यह है कि जब बी या लता में पुष्प ( पक्षान्तर में शिशु) होते है, उनमें तूने उपेक्षा ( निरादर) कर दी है तब तेरा फोड़ा-कार्य कैसे होगा ? अर्थात्-तेरी पुष्पवाण-क्रीडा किसप्रकार से होगी? ॥१५॥
* 'शिशुलतोद्गति' इति क, ख, ग, घ । 'सुपेक्षिप्तासि' इतिक० । १. उत्प्रेक्षालंकार । २. रूपकालंकार ।