Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रथम आवास
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मुनिकुमारः - 'अनर्थिनः खलु जनस्यामृतमपि निषिच्यमानं प्रायेण परिकल्पते संतापाय जायते चोपदेष्टः पिशाचकिन इवाकृतार्थव्यासः कथाप्रयासः,
बाले चॅमर वर्तमान हैं—ढोरे जारहे हैं। जिसमें ( उक्त तीनों नृत्यादि में ) मधुर शब्द करनेवाली करधोनी के लय ( क्रीड़ा-साम्य ) का विस्तार वर्तमान है। जिसमें (नृत्य व स्त्री-संभोग में ) भ्रुकुटि - विक्षेष द्वारा भाव ( ४६ प्रकार का भाव व संभोग-दान संबंधी अभिप्राय ) समर्पण किया गया है और जिसमें ( सभामण्डप में ) भ्रुकुटि - विक्षेप द्वारा कार्य-निवेदन किया गया है। जिसमें ( नृत्यपक्ष में ) निरोह और चरण के आरोपण (स्थापन ) व क्षेपण ( संचालन ) द्वारा दर्शकों के हृदय में उल्लास उत्पन्न किया गया है। जिसमें ( स्त्रीसंभोग पक्ष में ) पुरुष के निरोह और स्त्री के चरणों का न्यास संबंधी ( रतिक्रीड़ोपयोगी ) आसनविशेष द्वारा आनन्द पाया जाता है। जिसमें ( सभामण्डप पक्ष में ) निरोहों व चरणों के ग्यासासन (स्थापनादि ) द्वारा आनन्द पाया जाता है। जिसमें ( नृत्यपक्ष में ) दोनों हस्तरूप ध्वजाएँ नृत्य कर रही हैं और जिसमें ( स्त्रीसंभोग पक्ष में ) हस्त श्रेणीरूप ध्वजाएँ संचालित की जा रही है । जिसमें ( सभामण्डप पक्ष में ) करकमलों पर धारण की हुई ध्वजा फहराई जारही हैं। जिसमें शारीरिक अनों हस्त पादादि ! के विक्षेप ( नृत्यकला-पूर्ण संचालन ) का उल्लास दृष्टिमार्ग पर लाया जारहा है। जिसमें ( स्त्रीसंभोग पक्ष में ) ङ्ग ( रति-विलास के अ ) और मोतियों के हार द्वारा दृष्टिपथ में आनन्द प्राप्त किया गया है एवं जिसमें ( सभामण्डप में ) हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना रूप सैन्य के श्रज्ञ समूह द्वारा हर्ष दृष्टिपथ में प्राप्त किया गया है' || १७४||
पश्चात् सर्वश्री अभयरुचि कुमार ( शुल्लक श्री ) ने मनमें निप्रकार विचार करते हुए राजा मारिका पुनः गुणगान करना प्रारम्भ किया-'ऐसे श्रोता को, जो वक्ता की बात नहीं सुनना चाहता, सुनाए हुए अमृत सरीखे मधुर वचन भी बहुधा क्लेशित करते हैं और साथ में रक्त का कथन करने का कष्ट भी निष्फल - विस्तार वाला होजाता है। निरर्थक बोलने वाला पक्का भूत चढ़े हुए सरीखा निन्य होता है। क्योंकि उसके वचनों से श्रोताओं का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । भावार्थ- नीतिनिष्ठों' ने भी कहा है कि जो वक्ता, उस श्रोता से बातचीत करता है, जो कि उसकी बात नहीं सुनना चाहता, उसकी लोग इसप्रकार निन्दा करते हैं कि इस बक्ता को क्या पिशाच ने जकड़ लिया है ? अथवा क्या इसे वातोषण सन्निपात रोग होगया है ? जिसके फलस्वरूप ही मानों यह निरर्थक प्रलाप कर रहा है। नीतिकार भागुरि ने कहा है कि 'जो बक्ता उसकी बात न सुननेवाले मनुष्य के सामने निरर्थक बोलता है वह मूर्ख है, क्योंकि वह निरसन्वे जंगल में रोता है'। जिसप्रकार अपनी इच्छानुकूल पति को चुननेवाली कन्याएँ, दूसरे को द आने पर ( पिता द्वारा उनकी इच्छा के विरुद्ध दूसरों के साथ विवाही जाने पर ) पिता को तिरस्कृत करती हैं या उसकी हँसी मजाक कराती हैं, उसीप्रकार वक्ता की निरर्थक वाणी भी उसे तिरस्कृत व हास्यास्पद बनाती है " I
१. यथासंख्य अलङ्कार |
२. तथा च सोमदेवसूरिः -- स खल्ल पिशाचकी बातकी वा यः परेऽनर्बिनि बाचसुद्दीरयति' नीतिवाक्यामृते ।
३. तथा च भागुरि-अश्रोतुः पुरतो वाक्यं यो वदेदविचक्षणः । अरण्यरुदितं सोऽत्र कुरुते नात्र संशयः ॥ १ ॥ ४. तथा च सोमदेवसूरिः पतिंवरा इव परार्थाः बल वाचरताश्च निरर्थकं प्रकाश्यमानाः शपयस्यवश्यं जनवितारं । ५.समा वर्ग:- पृथालापं च यः कुर्यात् स पुमान् हास्यतां श्रजेत्। पतिंवरा पिता यद्वदन्यस्यार्थे था
[ ददत् ॥१॥