Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रथम प्राधास अप कमलकलश सिमावरण सकलोपमानरुविरचितकरण । यमवरुणधमदशावतार कल्याणविजय संसारसार १८ ॥ एकातपत्रवसुधीचितार संमामलिमिताभुगा । विद्याविनोदसहजानुरागीतिप्रबन्धभूतभुवनभाग ॥ ११ ॥ सत्पुरुपस्वसग्रहणनिम्न गुरुदेवमहामुनिशमितविन्न । निखिलाभितजनकरूपमाभ भामिप्रतिपालनपदमनाम ॥ १८ ॥ रणवीर वैरिकरिकसविनोद शौण्डीरशिखामणिवन्यपाद । गुणयोषमुखरको चण्डारखण्डितपिपुगलनालय॥ ११ ॥ दोर्दण्जलितपरबलगगेन्द्र नियोजशौर्यतोपितसुरेन्द्र । कृतवन्धानर्सतर्ष यसमरमुनपुरकममवर्ष ॥ १८ ॥ निजभुजवलसाधितजगदसाध्य लक्ष्मीकुचनिबिवियाहुमप। दुश्पीडनविषमनेत्र सविनीनशेखरचरित्र ॥ १३ ॥
____ जो कमल, घट, और वन के चिन्हों से व्याप्त हुए चरण-कमलो से सुशोभित है। जिसके मुख-आदि शारीरिक अवयव समस्त उपमानों (समान-धर्मवाली चन्द्र प कमलादि वस्तुभों) के कान्ति-मण्डल से रचे गए हैं। जो दण्डविधान में यमराज का अवतार, अगम्य (आक्रमण करने के अयोग्य) होने से बरुण के अवतार, याचकों की आशाओं की पूर्ति में कुवेर-सरश
और ऐश्वर्य में इन्द्र के अवतार हैं। जिसका दिग्विजय, समस्त प्राणियों के लिए माङ्गलिक ( कल्याण कारक) है और जो संसार में सारभूत ( सर्वश्रेष्ठ ) है, ऐसे हे राजन् ! आप सर्वोत्कर्ष रूप से प्रवृत्त हो॥१७८।। जिसका शरीर एकरछत्र पृथ्वी के शासन-योग्य है, जो युद्ध क्रीड़ा रूपी प्यारी श्री के उपभोग करने में काली मारक , शास संबंधी गुहात में स्वाभाविक मनुराग ( अकृत्रिम स्नेह ) रखते हैं और जो कीर्ति समूह से पृथिवी मण्डल को परिपूर्ण करते हैं, ऐसे हे राजन् ! आप सर्वोत्कर्ष रूप से प्रवृत्ति करें ॥१७६।। जो सजन पुरुष-रूप रनों के स्वीकार करने में तत्पर हैं। जिसके द्वारा गुरुदेवों ( मातापिता व गुरुजन-आदि हितषियों ) और महामुनियों की विघ्न-बाधाओं का निवारण किया गया है। जो समस्त सेवकजनों के मनोरथ पूर्ण करने में कल्पवृक्ष के सश है और पृथिवी का रक्षण करने में श्रीनारायण-तुल्य है, ऐसे हे राजन् ! आप सर्वोत्कर्ष रूप से प्रवृत्त हों ।। १० ।। जिसने संग्राम में शूरता या पाठान्तर में धीरता दिखानेवाले शत्रुओं के हाथी नष्ट किये हैं। जिसके चरणकमल स्याग और पराक्रम में विख्यात हुए राजाओं के शिखा-भशियों ( शिरोरत्नों) द्वारा नमस्कार करने के योग्य हैं। जिसके द्वारा बोरी की टवार थनि से शम्द करनेवाले धनुष के प्रचण्ड पाणों द्वारा शत्रुषों के कण्ठों के माल-(नलुश्रा-नसें या नाड़ी) समूह अथवा काठरूप-नालों (कमल-उण्डियों) के बन छिम भिम किये गए हैं, ऐसे हे मारिदास महाराज ! आप सर्वोत्कर्ष रूपमें वर्द्धमान हो ॥ १८१ ॥ जिसने बाहुपण द्वारा शत्रुसेना के श्रेष्ठ हायी पूर्ण किये हैं। जिसके द्वारा निष्कपट की हुई शूरता से सौधर्म-आदि स्वर्गों के इन्द्र उल्लासित (आनन्दित ) किये गए है। जिसने शत्रुओं के कबन्धों (शिर-शून्य शरीरों ) के नपाने की सालसा की है जिसके संग्राम के अवसर पर देवताओं द्वारा पुष्प-वृष्टि कीगई है, ऐसे हे राजन् ! भापकी जय हो, अर्थात्-माप सोस्कर्ष रूप से वर्तमान हों ।। १२॥ जिसने अपनी भुजामों (बाहुओं की सामर्थ्य से संसार में असाभ्य (प्रास होने के लिए अशक्य) सुख इस्त-गत (प्राप्त ) किया है। जिसका पकस्थल, लक्ष्मी के कुषों (स्वनो) द्वारा गाद मालिङ्गान किया गया है। जो [शत्रु संबंधी ] दुर्गों (जल, वन व पर्वतादि) और खानियों के पीड़ित ( नष्ट-भ्रष्ट अथक्षा हस्तान्तरित ) करने में नेत्रों की इटिससा धारण करता है। अथवा दुर्गा-करपीडन-विषमनेत्र अर्थात्-जो श्रीपार्वती के साथ बियाह करने में श्रीमहादेष सरीखा है और जिसका चरित्र, समस्त पृथिषी के राजाभों के लिए मुकुट-प्राय (शिरोधार्य) या श्रेष्ठ है।। १३ ॥
* 'धीर' इति का। 'समयमुक्त दि.A-टिप्पण्या व संग्राम इति जिवित ।