Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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मशक्तिरूपकाव्ये
मानना प्रपितामहः पूर्वेण तु पिता ।
त्रिवेदीदिविशिविममरामः त्रिदिवातरत्कीर्ति कोकीपतिभिः समः ॥ ३१ ॥ चतुर्थनै समासम्म दुर्विद्याममपत्नीः । चतुःसमपसारतुरम्भोभवतः ॥ ३२ ॥ परिवसे करे त्यागः सस्य वक्त्रे कुतं सुतौ स्यानन्यवनाचेवमेतद्रूपतां गा ॥ ३३ मेनाजितोऽत्यर्थ कामं पुरपता कृताः । सकामधेनवो व्यर्थाश्चिन्तामणिरमः ॥ ३४ ॥ धर्मस्यामा बाणो नुर्पु चे पराक्मुखम्। ततो यथा भवरिविजयाय भुजद्वयम् ॥ ३१ ॥ परणे मत्स्य प्रीतिः शत्रुगम | दोर्दण्ड एव यस्यासतो विद्वानः ॥ ३६ ॥ जो इस जन्म की अपेक्षा से मेरा प्रपितामह ( पिता का पितामह ) था । अर्थात् - वर्तमान में मेरे पिता यशोमति राजा और उसके पिता यशोधर राजा और उसके पिता राजा यशोर्ष था । और पूर्वजन्म ( यशोधर पर्याय ) की अपेक्षा से मेरा पिता था' |
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नहीं सोचना
जो त्रिवेदी (ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद अथवा सर्क, व्याकरण व सिद्धान्त ) वेत्ता विद्वानों द्वारा सम्माननीय और नारायण-सरीखा पराक्रमी था एवं जिसकी कीर्ति स्वर्गलोक की इन्द्रसभा में प्रवेश कर रही थी और जो इन्द्र, घरणेन्द्र व चकवर्ची-सा प्रतापी था ॥ ३१ ॥ जिसकी प्रवृत्ति चारों पुरुर्थी ( धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष ) के परिपालन में तत्पर थी। जो आन्वीक्षिकी ( दर्शनशास्त्र), त्रयी (वर्णामों के कर्तव्यों को बतानेवाली विद्या ), वार्ता ( कृषि व व्यापारादि जीविकोपयोगी कर्तव्यों का निरूपण करनेवाली विद्या) और दण्डनीति ( राजनीति ) इन चारों विद्याओं के पारदर्शी विद्वानों में श्रेष्ठ था। जो चार सिद्धान्तों (जैन, शैव, वैदिक व बौद्धदर्शन ) के रहस्य का ज्ञाता था और जिसकी कीर्ति चारों समुद्रों में विख्यात थीं ॥ ३२ ॥ जो अनोखे निम्नप्रकार धर्मादि प्रशस्त गुणरूप आभूषणों से अशक्त था । उदाहरणार्थ - जिसका चिन्त धर्म (अहिंसा) रूप आभूषण से, करकमल वानरूप आभूषण से, मुख सत्यभाषणरूप अलङ्कार से और कर्णयुगल शास्त्र -श्रवणरूप आभूषण से विभूषित थे* ॥ ३३ ॥ वाचक-लोक के मनोरथ विशेषरूप से पूर्ण करनेवाले जिसने अभिलषित वस्तु देनेवाली कामधेनु, चिन्तामणि और कल्पवृद्ध आदि वस्तुएँ स्यर्थ कर दी थीं ॥ ३४ ॥ जिस यशोर्घराजा की दोनों भुजाएँ शत्रुषों को पराजित करने के लिये इसलिये समर्थ थीं, क्योंकि बाज तो धर्मस्याग से (धनुष द्वारा छोड़े जाने के कारण और दूसरे पक्ष में न्यायमार्ग का उलन करने के कारण ) विजयश्री प्राप्त करता है एवं मनुष युद्ध के अवसर पर पराङ्मुख ( डोरीवाले भाग को पीछा करनेवाला और दूसरे पक्ष में कायरतावश पीठ फेरनेवाला) होकर विजयश्री प्राप्त करनेवाला होता है ॥ ३५ ॥ उस खन को विकार है, जो बुद्धभूमि पर शत्रु कष्ठों को छिन्न-भिन्न करने में अनुरक्त नहीं है, इसीकारण (देना होने के मित्र से प्रत्युपकारशून्यतारूपी दोष होने के कारण) जिसका भुजरूपी दएड ही शत्रुओं का क्षय करनेवाला हुच्चा - " ।। ३६ ॥
उक्त पाठ इ. लि० सटि- क ध से संकलित । मु० प्रतौ तु 'जमतो' इति पाठः । १. मालंकार । उपमा - अतिशयालंकार । ३. अतिश वालंकार | समुकारुङ्कार | ५. उपमालङ्कार । ६. श्लेषालङ्कार। ७. रूपक - स्लेवालङ्कार ।
८. तथा चोच कृतकार्येषु भृत्येषु नोपकुर्वन्ति ये नृपाः । जन्मान्तरेऽधिनां ते स्युस्तद्ग्रहहिराः ॥ १ ॥ वर्षात् जो राजालोग, उनकी कार्य-सिद्धि करनेवाले सेवकों का प्रत्युपकार नहीं करते, वे भविष्य जन्म में उन सेवकों के जो कि अन्मान्तर में अधिक ऐश्वर्य प्राप्त करनेवाले होते हैं, ग्रह-किडर ( गृह-सेवक ) होते हैं। – यशस्तिलककी संस्कृत ट्रीका पृ० ११२ से समुद्धृत–सम्पादक ।
४. दीपक, उपमा