Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रथम श्राश्वास
है कि तस्मात् - द्वयमेव तपःसिद्धौ बुधाः कारणसूचिरे । यदनालोकन स्त्रीणां यच
संसर्गेण गुणा अपि भवन्ति दोषास्तदद्भुतं नैव । स्थितमघरे रमणीनाममृतं चेतांसि कलुषयति ॥ ७९ ॥ मरुतो जनः स्वयं नीतः । चित्रमिदं नतु यत्तां पश्यति गुरुधन्तुमियेषु ॥ ८० ॥ संलपनंतनोः ॥ ८१ ॥
इति च विचिन्त्य, 'तक्ष्णमत्र बहुप्रत्यूहभ्यूद्दासाथया निषथया' इति व निविष्य, परिक्रम्य च सोक्रमम्तरम्, सप्तजिहा जिए ज्वालाजालातीताकाशालाये स्मशानायं व्यालोका ॥
(स्वगतम् । ) अहम् पश्यन सकलानामयमङ्गलानामसमसमीहाभवनं पित्रनम् । यतः - काव्याला मरे: शस्योत्करैः पूर्ति कालमाहविमीर्णफेनविकलैः कीर्ण शिरोमण्डलैः । कायाधविनोदपाशविवशैः केशैश्चिर्त सर्वत: कालोस्पातसप्रदवै च भस्मोचयैः ॥ ८३ इतश्च यत्र—अर्धग्धशवलेश लालसैर्भण्दनोस्टद्मान्तरः । कास्के लिकर कौतुकोद्यतैर्विवकमिवान्तरम् ॥ ८३॥
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ज्ञान-विज्ञानादि प्रशस्त गुण भी कुसंग-वश दोष होजाते हैं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं । उदाहरणार्थ — क्योंकि रमशियों के प्रष्ट में स्थित हुआ अमृत, हृदयों को कलुषित ( विषपान सरीखा अचेतन) कर देता है। भावार्थ - जिसप्रकार युवतियों के प्रोष्ठ-संसर्ग वश अमृत, मनुष्य हृदयों को कलुषित ( मूति व बेजान ) कर देता है उसीप्रकार ज्ञानादि गुण भी कुसंसर्ग वा अज्ञानादि दोष होजाते हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ||७|| रमणियों के मनोहर कटाक्षों द्वारा यह मानव अत्यन्त लघुता ( क्षुद्रता ) में प्राप्त कराया जाता है। क्योंकि यह प्रत्यक्ष देखी हुई घटना है कि यह, गुरु, बन्धु और मित्र जनों के बीच में स्थित होता हुआ भी स्त्री को ही अनुराग पूर्वक देखता रहता है* !|८०|| उस कारण से विद्वानों ने तप-प्राप्ति के दो उपाय बताए हैं । १– स्त्रियों का दर्शन न करना और २तपश्चर्या द्वारा शरीर को क्रश करना ॥८१॥ ऐसा विचार करने के पश्चात् उन्होंने यह निश्चय किया कि 'इस उद्यान भूमि में ठहरने से हमारी तपश्चर्या में अनेक विनयाधाओं की श्रेणी उपस्थित होगी' श्रयः वहाँ से थोड़ा मार्ग चलकर उन्होंने अग्नि की भीषण लपटों की श्रेणी से आकाश कान्ति को धूसरित करनेवाली श्मशान भूमि देखी ।
पश्चात् उन्होंने अपने मन में निम्नप्रकार विचार किया - अहो ! विशेष आश्चर्य या खेद की बात है, हे भव्य प्राणियो ! आप लोग समस्त अशुभ वस्तु संबंधी विषम चेष्टाओं की स्थानीभूत स्मशानभूमि देखिये
क्योंकि जो फाल रूपी दुष्ट हाथी के दन्ताङ्कुरों की विशेष भयानक अस्थि ( हड्डी ) राशियों से भरी हुई है। जो कालरूप मकर द्वारा उद्गीर्ण ( उगाले हुए) अस्थि-फेनों सरीखी कपाल श्रेणियों से व्याप्त है। जो काल रूप बहेलिये के क्रीड़ा पार्शो सरीखे केशों से सर्वत्र व्याप्त है और जो काल रूप अशुभसूचक शुभ्र काक की श्रेणी-सी भस्म - राशियों से भरी हुई है" ||२२|| जिसका एकपार्श्व भाग ऐसा था, जिसका मध्यभाग ऐसे शिकारी कुत्तों द्वारा उपद्वष-युक्त कराया गया था, जो अर्धदग्ध मुर्दों के खंडों में विशेष आकाङ्क्षा रखते थे व जिनके कण्ठ के मध्यभाग युद्ध करने में विश्वार-युक्त हुए कुत्सित (ककटु) शब्द करते थे एवं जो काल की क्रीडा करनेवाले कौतुकों (विनोदों) के करने में प्रयत्न शील थे ||३||
१. सालंकार | २. जति अलंकार | ३. समुच्चयालंकार । ४. रूपकालंकार । ५. जाति अलंकार ।