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प्रस्तावना
(पृ. १५५ ) में पं. नाथूराम प्रेमी ने तथा जिनरत्नकोश (पृ. ३७७) में श्री. वेलणकर ने भी इस का उल्लेख किया है । किन्तु इस की हस्तलिखित या मुद्रित प्रतियों का कोई संकेत नही मिला ।
कातन्त्ररूपमाला—कातन्त्रव्याकरण के सूत्रों के अनुसार शब्दरूपों की सिद्धि का इस ग्रन्थ में वर्णन है । इस के प्रथम सन्दर्भ में ५७४ सूत्रों द्वारा सन्धि, नाम, समास तथा तद्धित का वर्णन है एवं दूसरे सन्दर्भ में ८०९ सूत्रों द्वारा तिङन्त व कृदन्त का वर्णन है । सन्दर्भों के अन्त में लेखक ने अपना नामोल्लेख ' भावसेन त्रिविद्येन वादिपर्वतवरिणा । कृतायां रूपमालायां कृदन्तः पर्यपूर्यत || ' इस प्रकार किया है । मूल व्याकरण का नाम कौमार व्याकरण भी है । लेखक का कथन है कि भगवान ऋषभदेव ने ब्राह्मी कुमारी के लिए इस की रचना की अतः यह नाम पडा । किन्तु लेखक ने ही इस व्याकरण को शार्ववर्मिक ( शर्ववर्माकृत ) यह विशेषण भी दिया है । शब्दरूपों के उदाहरणों में अकलंक स्वामी (पृ. ११ ) तथा व्याघ्रभूति आचार्य (पृ. ६६ ) का उल्लेख है । यह ग्रन्थ श्री. भंवरलाल न्यायतीर्थ ने मुद्रित किया है तथा वीरपुस्तकभंडार, जयपुर ने १९५४ में इसे प्रकाशित किया है । इस की हस्तलिखित प्रतियां सन १३६७ से प्राप्त होती हैं यह आगे बताया ही है ।
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न्यायसूर्यावली — इस की प्रति स्ट्रासबर्ग (जर्मनी) के संग्रहालय में है । इस के वर्णन से पता चलता है कि इस में मोक्षशास्त्र के पांच परिच्छेद हैं । ( विएन्ना ओरिएन्टल जर्नल १८९७ पृ. ३०५ )
भुक्तिमुक्तिविचार - इस की प्रति भी उपर्युक्त संग्रहालय में ही है । (उपर्युक्त पत्रिका पृ. ३०८) नाम से अनुमान होता है कि इस में स्त्रीमुक्ति तथा केवलिभुक्ति की चर्चा होगी ' ।
सिद्धान्तसार - जिनरत्नकोश के वर्णनानुसार यह ग्रन्थ मूडबिद्री के मठ में है तथा इस का विस्तर ७०० श्लोकों जितना है । किन्तु
१) सूचित करते हुए हर्ष होता है कि इन दो ग्रन्थों की प्रतियों के सूक्ष्म चित्र ( माइक्रो फिल्म ) प्रो. आल्स्डोर्फ की कृपासे, डॉ. उपाध्ये को प्राप्त हो गये हैं । इनके यथासंभव उपयोग का प्रयत्न शीघ्र ही किया जायगा ।