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प्रस्तावना
में भावसेन की निपुणता उन के ग्रन्थों से ही स्पष्ट है । आगम में भी वे प्रवीण रहे होंगे । अतः उन की त्रैविद्य उपाधि सार्थक ही है।
इस ग्रन्थ के अन्त में दस पद्यों की प्रशस्ति है जो सम्भवतः लेखक के किसी शिष्य ने लिखी है । इस के पांचवें पद्य में वैद्यक, कवित्र, संगीत तथा नाटक में भी भावसेन की निपुणता का उल्लेख है। अन्य पद्यों में अभिनव विधि, व्रतीन्द्र, मुनिप, वादीभकेसरी इन विशेषणों द्वारा उन की प्रशंसा की है । इस प्रशस्ति के तीन पद्य कनड भाषा में हैं । उपर्युक्त समाधिलेख भी कन्नड में ही है । अतः भावसेन का निवासस्थान कर्णाटक प्रदेश था यह स्पष्ट है । १ --
उपसंहार के एक पद्य में लेखक ने कहा है कि वे दुर्बल के प्रति अनुकम्पा, समान के प्रति सोजन्य एवं श्रेष्ठ के प्रति सम्मान की भावना रखते हैं । अपनी बुद्धि के गर्व से उद्धत हो कर जो स्पर्धा करते हैं उन के गर्व को दूर करने के लिए ही उन्होंने यह ग्रन्थरचना की है।
जैन आचार्यपरम्परा में भावसेन नाम के दो अन्य विद्वान भी हुए हैं, इन का प्रस्तुत ग्रन्यकर्ता से भम नही करना चाहिए । इन में पहले भावसेन काष्ठासंघ-लाडवागड गच्छ के आचार्य थे । ये गोपसेन के शिष्य तथा जयसेन के गुरु थे। जयसेन ने सन ९९९ में सकलीकरहाटक नगर में ( वर्तमान क-हाड, महाराष्ट्र ) धर्मरत्नाकर नामक संस्कृत ग्रन्थ लिखा था । अतः इन भावसेन का समय दसवीं सदी का उत्तरार्ध है। दूसरे भावसेन काष्टासंघ-माथुरगच्छ के आचार्य थे। ये धर्मसेन के शिष्य तथा सहस्रकीर्ति के गुरु ये । सहस्रकीर्ति के शिष्य गुणकीर्ति के उल्लेख ग्वालियर प्रदेश में सन १४१२ से १४१७ तक प्राप्त हुए हैं। अतः इन भावसेन का समय चौदहवी सदी का उत्तरार्ध है ।२ प्रस्तुत ग्रन्थकर्ता की परम्परा, समय तथा प्रदेश इन दोनों आचार्यों से भिन्न हैं यह उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है।
१) समाधि लेख का स्थान अमरापुरम् इस समय आन्ध्र में हैं । किन्तु वहां के अधिकांश शिलालेख कन्नड में हैं। पुरातन समय में यह कन्नड प्रदेश में हो था। कर्णाटक में सेनगण के दो मठ होसूर तथा नरसिंहराजपुर में अब भी विद्यमान हैं। २) इन दोनों आचार्यो की गुरुशिष्यपरम्परा का विवरण हम ने 'भट्टारक सम्प्रदाय' में दिया है (देखिए पृ. २३९ तथा २५८)। ३) प्रस्तुत ग्रन्थकर्ता के समय का विवरण आगे दिया है।