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विश्वतत्त्वप्रकाशः
तथा बाद में अरिष्टनेमि आचार्य का वर्णन है तथा अंगज्ञानी आचार्यों के बाद दसवें क्रमांक पर इन का वर्णन है । इस क्रम से देखा जाय तो इन का समय पांचवों सदी होगा जो स्पष्टतः अविश्वसनीय है । यह पट्टावली १७ वीं सदी के अन्तिम भाग में लिखी गई है अतः उस के लेखक को आचार्यों के समयक्रम के बारे में सही जानकारी न हो तो आश्चर्य नही । किन्तु उस समय भी सेनगण के पुरातन आचार्यों में भावसेन का. अन्तर्भाव होता था यह इस से स्पष्ट होता है।
उपर्युक्त समाधिलेख में भावसेन को वादिगिरिवज्रदंड-बादीरूपी पर्वतों के लिए वज्र के समान--यह विशेषण दिया है। इस से मिलते जुलते विशेषण - वादिपर्वतव जिन् तथा परवादिगिरिसुरेश्वर कातन्त्र रूपमाला, प्रमाप्रमेय तथा प्रस्तुत ग्रन्थ की पुष्पिकाओं में भी पाये जाते हैं। दार्शनिक वादों में लेखक की निपुणता प्रस्तुत ग्रन्थ से ही स्पष्ट है । वाद के विभिन्न अंगों के विषय में कथाविचार नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी उन्हों ने लिखा था। अतः वादियों में श्रेष्ठ यह उन का विशेषण सार्थकही है।
उपर्युक्त लेख तथा ग्रन्थपुष्पिकाओं में भावसेन को त्रैविद्य (त्रिविद्य. विद्यदेव अथवा त्रैविद्यचक्रवर्ती ) यह विशेषण भी दिया है। जैन आचार्यों में शब्दागम (व्याकरण), तकणंगम (दर्शन) तथा परमागम (सिद्धान्त) इन तीन विद्याओं में निपुण व्यक्तियों को विद्य यह उपाधि दी जाती थी। इस के उदाहरण दसवीं सदी से तेरहवीं सदी तक प्राप्त हुए है (जैन शिलालेख संग्रह भा, २ पृ. १८८, २९४, ३३७ तथा भा. ३ पृ. ६२, ९८, २०७, २४५, ३५०)। तर्क और व्याकरण
१) इस का विवरण आगे दिया है। २) श्रवणबेलगोल के सन १११५ के लेख में मेघचन्द्र त्रैविद्य का वर्णन इस प्रकार है-सिद्धान्ते जिनवीरसेनसदृशः शास्याब्जभाभास्करः, षटतर्केष्वकलंकदेवविबुधः साक्षादयं भूतले। सर्वव्याकरणे विपश्चिदधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयं, विद्योत्तममेघचन्द्रमुनिपो वादीमपंचाननः ।। (जैन शि. सं. भा. १ पृ. ६२.) यल्लदहल्लि के सन ११५४ के लेख में त्रैविद्य नरेन्द्रकीर्ति का वर्णन इस प्रकार है-तर्कव्याकरणसिद्धान्ताम्बुरुहवनदिनकररुमेनिसिद श्रीमन्नरेन्द्रकीर्तित्रैविद्यदेवर् । (जैन शि. सं. भा. ३, पृ. ६२). ३) वैदिक परम्परा में तीन वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण त्रैविद्य कहलाते थे।
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