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(5)
श्री विपाकसूत्र
[कर्ममीमांसा
ऐसी स्थिति में इधर कूत्राँ उधर खाई वाली दशा होती है।
उत्तर-सुख दो प्रकार का होता है, पहला औदायिक और दूसरा आध्यात्मिक । श्रौदयिक सुख के सहकारी साधन भौतिक पदार्थ हैं । इस सुख के भाजन पुण्यात्मा है । मुक्तात्मा में औदायिक सुख का तो दुःख की तरह ही आत्यन्तिक अभाव है, परन्तु आध्यात्मिक सुख अनन्त है । वह सुख एक बार आविर्भूत हो कर फिर सदाकालभावी है । केवलज्ञान व केवलदर्शन की तरह एक रस है, अक्षीण है, अपर्यवसित है, अव्यावाध है।
प्रश्न-क्या मूर्तिमान पुहल अपने आहलाद, परिताप, अनुग्रह, उपघात आदि गुणों से श्रमूर्त आत्मा को प्रभावित कर सकता है ?
उत्तर-हां जो आत्मा कर्म से कथंचित् अभिन्न है उस को पुद्गल अपने प्रभाव से कथंचित प्रभावित कर सकता है । जैसे सुपथ्य भोजन करने से क्षधानिवृत्तिजन्य आलादकता, अग्नि, विद्युत अहिविष श्रादि के स्पर्श से परिताप । विज्ञान, धृति, स्मृति इत्यादि आत्मधर्म होने से अमूर्त है। मदिरापान से विज्ञान का उपघात होता है । विप खाने से धृति का और पिपीलिका (भूरी कोड़ी) खाए जाने से स्मृति का उपघात होता है । जीवातु जैसी औषधि पीयूप आदि पदार्थ सेवन करने से विज्ञान विकसित होता है । विषाक्त शरीर निर्विष, दिल और दिमाग़ी ताक़त को बल देने से उपनेत्र (ऐनक) श्रादि से अनुग्रह करता है । सिद्वात्मा पर पुद्गल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि वह अशरीरी है । सशरीरी आत्मा पर ही पुद्गल का प्रभाव पड़ सकता है ।
___ कर्मविपाक संसारस्थ प्राणी भोगते हैं, अतः अब संसारस्वरूप भी समझना आवश्यकीय है। जब तक किसी के स्वरूप को न समझा जाए तब तक वह पदार्थ हेय या उपादेय कदापि नहीं बन सकता है।
संसार का स्वरूप _संसार शब्द मम पूर्वक, सृ गतौ धातु घत्र प्रत्यय मे बना हुआ है, जिस का अर्थ होता है--संसरण करना, स्थानान्तर होते रहना । रूपान्तर होते रहना ही संसार का उपलक्षण अर्थ है।
यह संसार जन्म, मरण, जरा, रोग, शोक आदि अनन्न दुःखों से भरा हुआ। उन अनन्त द:खों के भाजन सकर्मा जीव ही बने हुए हैं । जैन सूत्रकारों ने जिज्ञासुओं की सुविधा के लिये संसार को चार भागों में विभक्त किया है । जैसे कि द्रव्यतः संसार, क्षेत्रतः संसार, कालतः संसार, भावतः संसार ।
१-चतुर्गति, चौरासी लाख योनि में जन्म धारण करना ही द्रव्यतः मंसार है ।
-१४ राजलोक में परिभ्रमण करना ही क्षेत्रतः संसार है । ३-कायस्थिति, भवस्थिति तथा कर्मस्थिति पूर्ण करना, नाना प्रकार की पर्याय धारण करना
ही कालतः संसार है। ४-घनघातिकर्मों का बन्ध नथा उन का उदय ही भावतः संसार है।
जो जीव द्रव्यतः संसारी हैं, वे क्षेत्रतः तथा कालतः संसारी अवश्य हैं, परन्तु भावतः संसारी व हों और न भी हों, जैसे अरिहंत देव । वे घनघाती कर्मों से सर्वथा रहित हैं। सिर्फ भवोपग्राही कर्म
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