________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
कर्ममीमांसा ]
हिन्दीभाषाटीकासहित
(७)
हैं और कुछ जीवविपाका | पुद्गलविपाका उसे कहते हैं जो प्रकृति शरीररूप परिणत हुए पुलपरमाणुओं में अपना फल देती हैं, जैसे कि पांचों शरीर, छः संहनन, छः संस्थान इत्यादि नामकर्म की ३७ प्रकृतियां पुद्गलविपाका कहलाती हैं। जो कर्मप्रकृति जीव में ही अपना फल देती है उसे जीवविपाका कहते हैं, जैसे कि ४७ घातकर्मों की प्रकृितियां, वेदनीय, गोत्र, तीर्थंकरनाम तथा त्रसदशक तथा स्थावरदर्शक इत्यादि नामकर्म की प्रकृतियां जीवविपाका कहलाती हैं। जैसे कोई अनभिज्ञ व्यक्ति औषधिएं खाता है। उन से होने वाले हित अहित को वह नहीं जानता किन्तु उसे विपाककाल में दुःख सुख वेदना पड़ता है । इसी प्रकार कर्म ग्रहण काल में भविष्यत् में होने वाले हित अहित को नहीं जानता है । परन्तु कर्मविपाककाल में विवश होकर दुःख सुख को वेदना ही पड़ता है ।
दार्शनिक दृष्टि से कर्मफलविषयक प्रश्नोत्तर - प्रश्न - कर्म रूपी हैं और दुःख सुखअरूपी हैं । कारण रूपी हो और कार्य अरूपी हो, यह बात मस्तिष्क में तथा हृदय में कैसे जच सकती है ? उत्तर- - दुःख और सुख आदि आत्मधर्म हैं। आत्मधर्म होने से आत्मा ही उन का समवायी कारण है । कर्म समवायी कारण हैं। द्रव्य क्षेत्र काल और भाव निमित्त कारण हैं । दुःख सुख दि आत्मधर्म हैं, इस की पुष्टि के लिए आगमप्रमाण लीजिए -- उत्तराध्ययन सूत्र के २८वें अध्ययन में जीव का लक्षण करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं कि
• जीवो उवओोगलक्खणं ।
नाणेणं च दसणेणं चेव सुहेण य दुहेण य ।। १० ।।
अर्थात् जीव चेतना लक्षण वाला है, ज्ञान दर्शन सुख और दुःख द्वारा पहचाना जाता है | अतः दुःख सुख आत्मधर्म हैं ।
प्रश्न - दुःख यदि आत्मधर्म है तो कमों का सर्वथा क्षय हो जाने के पश्चात् दुःखानुभूति क्यों नहीं होती ? यदि होती है तो मुक्त होना व्यर्थ है ?
1
उत्तर- जैसे कार्य के प्रति समवायी कारण अनिवार्यतया अपेक्षित है वैसे ही असमवायी कारण निमित्त कारण भी अपेक्षित हैं । समवायी कारण तथा निमित्त कारण के बिना अर्थात् इन के सर्वथा अभाव होने पर आत्मा में दुःख अवस्तु है । क्योंकि दुःख तो केवल औदयिक अवस्था में ही होता है। कि भाव के अभाव होने पर दुःख का भी आत्मा में अभाव ही हो जाता है । औयिक भाव का और दुःख का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। जहां औयिक भाव है वहां दुःख है, जहां दुःख नहीं वहां औदयिक भाव भी नहीं ।
I
प्रश्न - सुख भी आत्मधर्म है, आत्मा में सुख समवायी कारण से रहा हुआ है। उपर्युक्त समवायी कारण कर्म तथा निमित्तकारण के सर्वथा आत्यन्तिक अभाव होने पर दुःख की तरह सुख का भीमा में अभाव ही हो जाना चाहिए ?, इधर मुक्तात्मा में सुख का अभाव होना आगमसम्मत नहीं, क्योंकि आगमपाठ यह है
उलं सुहं संपन्ना उवमा जस्स नत्थि उ सिध्दाणं सुहरासी सव्वागासे नमाएज्जा ।
For Private And Personal