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कर्ममीमांसा]
भाषाटीकासहित
अब इसी विषय को दसरी शैली से समझिए-निश्चय नय की दृष्टि से कर्म आत्मा से भिन्न है, क्योंकि आत्मा के गुण आत्मा में ही अवस्थित हैं, कर्मों के गुण कर्मों में स्थित हैं, परस्पर गुणों का आदानप्रदान नहीं होता । कर्मों की पर्याय कर्मों में परिवर्तित होती है, और आत्मा की पर्याय आत्मा में, इस दृष्टि से अत्मा और कर्म भिन्न २ पदार्थ है । व्यवहार नय की दृष्टि से आत्मा और कर्म में अभेद है । जब तक दोनों में अभेदभाव न नाना जाए तब तक जन्म,जरा, मरण तथा दु:ख आदि अवस्थाएं नहीं बन सकतीं । अभेद दो प्रकार का होता है- १-एक सदा कालभावी अर्थात् अनादि अनन्त, जैसे कि आत्मा और उपयोग का अभेद, द्रव्य और गुण का अभेद, सम्यक्त्व और ज्ञान का अभेद । इसे नैत्यिक सम्बन्ध भी कह सकते हैं। दूसरा अभेद औपचारिक होता है, यह अभेद अनादि सान्त और सादि सान्त यों दो प्रकार का होता है । आत्मा के साथ अज्ञानता, वासना, मिथ्यात्व और कमों का सम्बन्ध अनादि है। इन का विनाश भी किया जा सकता है, इस लिए इस अभेद को अनादि सान्त भी कहते हैं । दूध दधि और मक्खन तीनों में घृत अभेद से रहा हुआ है, इस संबन्ध को सादि सान्त अभेद भी कह सकते हैं। हमारा प्रकृत साध्य अनादि सान्त अभेद है।
कर्मों का कर्ता कर्म है या जीव ?— इस के आगे अब प्रश्न पैदा होता है कि क्या कर्मों का कर्ता कर्म ही है ? या जीव है ?, इस जटिल प्रश्न का उत्तर भी नयों के द्वारा ही जिज्ञासुजन समझने का प्रयत्न करें। जैसे हिसाब के प्रश्नों को हल करने के लिये तरीके होते हैं जिन्हें गुर भी कहते हैं। एवमेव आध्यात्मिक प्रश्नों को हल करने के जो तरीके हैं उन्हें नय कहते हैं या स्याद्वाद भी कहते हैं। एकान्त निश्चय नय से अथवा एकान्त व्यवहार नय से जाना हुआ वस्तुतत्त्व सब कुछ असम्यक तथा मिथ्या है, और अनेकान्त दृष्टि से जाना हुआ तथा देखा हुआ सब कुछ सम्यक् है । अतः ये पूर्वोक्त दोनों नय जैन-दर्शन के नेत्र हैं, यदि ऐसा कहा जाए तो अनुचित न होगा।
अरूपी रूपी के बन्धन में कैसे पड़ सकता है---प्रश्न-आत्मा अरूपी ( अमूर्त ) है और कर्म रूपी है । अरूपी आत्मा रूपी कर्म के बन्धन में कैसे पड़ सकता है ?, उत्तर-यह प्रश्न बड़े २ विचारकों के मस्तिष्क में चिरकाल से घूम रहा है । अन्य दर्शनकार इस उलझी हुई गुत्थी को सुलझाने में अभी तक असमर्थ रहे, किन्तु जैनदर्शनकार जिनभद्र गणी क्षमाश्रमणकृत विशेषावश्यक भाष्य की १६३६ वीं गाथा तथा वृहद्वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द सूरि जी लिखते हैं-अहवा पच्चक्खं चिय जीवोवनिधणं जह सरीरं चिट्ठइ कम्मयमेव भवन्तरे जीवसजुत्तं । अथवा-यथेदं बाह्य स्थूलशरीरं जीवोपनिबंधनं जीवेन सह सम्बर्द्व प्रत्यक्षोपलभ्यभानमेव तिष्ठति सर्वत्र चेष्टते एवं भवान्तरं गच्छता जीवेन सह संयुक्त कार्मणशरीरं प्रतिपद्यस्व । अर्थात् जैसे-प्रत्यक्ष दृश्यमान स्थूल शरीर में आत्मा ठहरी हुई है। एवं आत्मा कर्मशरीर में अनादिकाल से बद्ध है, अबद्ध से बद्ध नहीं, और मुक्त से भी बद्ध नहीं, अर्थात अनादि से है । जैनागम तो किसी भी संसारी जीव को कथंचिनकरूपी मानता है। एकान्त अरूपी जीव तो मुक्तात्मा ही है क्योंकि वे कार्मण शरीर तथा तैजस शरीर से भी विमुक्त हैं। वैदिक दर्शनके सरूवि चेव अरूवि चेव । ठा० २, उ० पहल
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