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प्राक्कथन
संस्कृत भाषाकी अनुपम विशेषता है कि इसमें विश्वकी प्राचीनतम मानव-विचारधारा युगवाणीके माध्यमसे आज भी मुखरित हो रही है। प्राक्तनकालसे ही आर्य और आर्येतर, वैदिक और अवैदिक जो कुछ विचारणा भारतमें हुई, उसकी प्रदर्शनी यदि कहीं एकत्र मिल सकती है तो वह भारतको सांस्कृतिक निधि है। भारतकी सनातन धारणा रही है कि यदि अपने विचारोंको अमर बनाना है तो उसे अमरवाणोके द्वारा साहित्यरूपमें ढालना चाहिये । न केवल हिन्दू, जैन और बौद्ध, अपितु मुसलमान राजाओंने भी संस्कृत रचनाओंके द्वारा अपने नाम और सदाशयताको अमिट बनानेकी योजना प्रवर्तित की है।
संस्कृत भाषाका समारम्भ रामचरितसे हुआ है । वाल्मीकि द्वारा प्रणीत रामचरित इतना लोकप्रिय हुआ कि तबसे लेकर आज तक संस्कृतमें जो कुछ लिखा गया, वह रामचरितसे सुवासित है। निःसन्देह आदिकविके रामचरितने भारतका चारित्रिक और कलात्मक निर्माण किया है। स्वाभाविक है कि वाल्मीकिकी आर्ष पद्धति परवर्ती महाकवियोंके द्वारा अपनाई गई और चरित-महाकाव्यकी परम्परा निरवधि काल तकके लिये चल पड़ी। अश्वघोष, कालिदास और अभिनन्दकी परम्परामें महाकवि असगने वर्धमानचरितको रचना जिस महान् उद्देश्यको लेकर की, वह कविके शब्दोंमें इस प्रकार है
कृतं महावीरचरित्रमेतन्, मया परस्वप्रतिबोधनार्थम् । कविको अपने उद्देश्यकी पूर्तिमें प्रकाम सफलता मिली है। इस काव्यमें पदे-पदे मानवताको उच्चाभिमुखी बननेका सन्देह आपूर्ण है ।
जैन कवियोंने प्रारम्भमें अपनी काव्य-प्रतिभाका विकास प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओंके द्वारा किया और उनकी भारतीसे भारतीय साहित्यकी अनुपम समृद्धि सहस्रों वर्षों तक हुई है। कालान्तरमें प्राकृत और अपभ्रंशके साथ ही जैन-संस्कृतिके उन्नायकोंने संस्कृत भाषाको चरित-काव्यके लिये अपनाया और आठवीं शतीसे आगे सैकड़ों चरित-महाकाव्योंमें तीर्थंकरों और महापुरुषोंकी चारुचरितावली निबद्ध की गई। ऐसे महाकवियोंमें असग पहली पीढ़ीके हैं। उनका महाकाव्य कोरा काव्य ही नहीं है, अपितु एक महापुराणोपनिषद् है, जैसा इस रचना को अन्तिम पुष्पिकामें कविवरने स्वयं लिखा है । इसमें जीवनकी आध्यात्मिक प्रवृत्तियोंपर प्रकाश डाला गया है।
असगके महाकाव्यको आजकी विचारधाराका एक अंग बना देनेका श्रेय इसके सम्पादक डॉ० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य को है। डॉ० जैन ने संस्कृत और प्राकृत के अगणित ग्रन्थोंका वैज्ञानिक विधिसे सम्पादन और राष्ट्रभाषामें अनुवाद करके यथायोग्य तपोमयो विजयिनी ख्याति अर्जित की है। आशा है, उनके प्रस्तुत ग्रन्थका भी पूर्ववत् सम्मान होगा और भविष्यमें उनकी लेखनी नित्य नूतन रत्नोंसे सरस्वतीको समलंकृत करती हुई सशक्त रहेगी।