Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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अध्यात्म और विज्ञान
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किन्तु आत्मविद नहीं। आज के वैज्ञानिक भी नारद की भाँति ही हैं। वे शास्त्रविद् तो हैं किन्तु आत्मविद् नहीं। आत्मविद् हुए बिना शान्ति को नहीं पाया जा सकता। यद्यपि मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि हम विज्ञान और उसकी उपलब्धियों को तिलांजलि दे दें। वैज्ञानिक उपलब्धियों का परित्याग न तो सम्भव है न औचित्य पूर्ण है। किन्तु इनका अनुशासक होना चाहिए । अध्यात्म ही विज्ञान का अनुशासक हो, तभी एक समग्रता या पूर्णता आयेगी और मनुष्य एक साथ समृद्धि और शान्ति को पा सकेगा। ईशावास्योपनिषद् में जिसे हम पदार्थ ज्ञान या विज्ञान कहते हैं उसे अविद्या कहा गया है और जिसे हम अध्यात्म कहते हैं विद्या कहा गया है । उपनिषदकार ने दोनों के समन्वय को उचित बताते हुए उनका स्वरूप कहा है। वह कहता है जो पदार्थ विज्ञान या अविद्या की उपासना करता है वह अन्धकार में, तमस में, प्रवेश करता है क्योंकि विज्ञान या पदार्थविज्ञान अन्धा है किन्तु साथ ही वह यह भी चेतावनी देता है कि जो केवल विद्या में रत हैं वे उससे अधिक अन्धकार में चले जाते है। अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामपासते। ततो भूय इव ते ततो य उ विद्यायां रताः १९। ईशावास्योपनिषद । वस्तुतः वह जो अविद्या और विद्या दोनों के साथ उपासना करता है वह अविद्या के द्वारा मृत्यु को पार करता है अर्थात् वह सांसारिक कष्टों से मुक्ति पाता है और विद्या के द्वारा अमृत प्राप्त करता है । विद्या चाविद्यां च यस्तद्वेदोमयं सह । अविद्यया मृत्युं तीर्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥११॥ ईशावास्योपनिषद् । वस्तुतः यह अमृत आत्म-शान्ति या आत्मतोष ही है। जब विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय होगा तभी मानवता का कल्याण होगा । विज्ञान जीवन के कष्टों को समाप्त कर देगा और अध्यात्म आन्तरिक शान्ति को प्रदान करेगा । आचारांग में महावीर ने अध्यात्म के लिए 'अज्झत्थ' शब्द का प्रयोग किया है और यह बताया है कि इसी के द्वारा आत्मविशुद्धि को प्राप्त किया जा सकता है । वस्तुतः अध्यात्म कुछ नहीं है वह आत्म उपलब्धि या आत्म विशुद्धि की ही एक प्रक्रिया है उसका प्रारम्भ आत्मज्ञान से है और उसकी परिनिष्पत्ति आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति अटूट निष्ठा में है । वस्तुतः आज जितनी मात्रा में पदार्थविज्ञान विकसित हुआ है उतनी ही मात्रा में आत्मज्ञान को विकसित होना चाहिए । विज्ञान की दौड़ में अध्यात्म पीछे रह गया है। पदार्थ को जानने के प्रयत्नों में हम अपने को भुला बैठे हैं। मेरी दृष्टि में आत्मज्ञान कोई अमूर्त, तात्विक आत्मा की खोज नहीं है वह अपने आपको जानना है । अपने आपको जानने का तालर्य अपने में निहित वासनाओं और विकारों को देखना है । आत्मज्ञान का अर्थ होता है हम यह देखें कि हमारे जीवन में कहाँ अहंकार छिपा पड़ा है, कहां और किसके प्रति घृणा और विद्वेष के तत्व पल रहे हैं। आत्मज्ञान कोई हौव्वा नहीं है वह तो अपने अन्दर झांककर अपनी वृत्तियों और वासनाओं को पढ़ने की कला है। विज्ञान द्वारा प्रदत्त तकनीक के सहारे हम पदार्थों का परिशोधन करना तो सीख गये और परिशोधन से कितनी शक्ति प्राप्त होती है यह भी जान गये किन्तु आत्मा के परिशोधन को कला अध्यात्म विद्या के नाम से हमारे ऋषि-मुनियों ने हमें दी थी। आज हम उसे भूल चुके हैं। मात्र यही नहीं विज्ञान ने आज हमारा एक और जो सबसे बड़ा उपकार किया वह यह कि धर्मवाद के नाम पर जो अन्धश्रद्धा और अन्धविश्वास की तन्द्रा आ गई थी उसे तोड़ दिया है। इसका
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