Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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उत्तरपूराणका रचनास्थल बकापुर हैं। यह स्थान पूना-बंगलोर रेलवं लाइनमें हरिहर स्टेशनके समीपवर्ती हावेर रेलवे स्टेशनसे पन्द्रह मीलपर धारवाड़ जिले में है। उत्तरपुराणके समाप्तिकालमें बंकापुरमें जन बीर केयका सुयोग्य पुत्र लोकादित्य कृष्णराज द्वितीयके सामन्तके रूपमें राज्य करता था । बंकापुर को स्थापना लोकादित्यने अपने वीर पिता बंकेयके नामपर की थी। बकेयकी धर्मपत्नी विजया बड़ी विदुषी थी। इसने मंस्कृनमें एक काव्य रचा है, जो भीमरावने कर्नाटकगत वैभव नामक अपनी रचनाम उदाहरण के रूपमें उद्धृत किया है । गुणभद्रके अनुसार लोकादित्य स्वतन्त्र सामन्त था और इसने बकापूरमें जैन मन्दिगेकी सुन्दर व्यवस्था की थी। निश्चयत: उन दिनांम बंकापरमें अनेक जनाचार्य निवास करते थे। यही कारण है कि गङ्गनरेश मारसिंहने यहाँ आकर सल्लेखना ब्रत ग्रहण किया था। इसी बंकापुरमें गुणभद्र ने अपने उत्तरपुगणकी रचना की है। आत्मानुशासन __ इस महत्वपूर्ण धर्म एवं नीति-अन्यमे २६९, पद्म झ् । आत्माके यथार्थ स्वरूपको शिक्षा दनक लिए इसका प्रणयन किया गया है। इसपर प्रभाचन्द्राचार्यने संस्कृन-टीका और पण्डित टोडरमल्लने हिन्दी-टीका लिखी है । ग्रन्के अन्तिम पद्यम आचार्यने स्वय स्पष्ट कर दिया है कि ब जिनसेनाचार्य द्वितीयक शिग्य हैं।
उत्थानिकाके अनन्तर सुभापितरूपमें सुख-दुःखविधक, सम्यग्दर्शन, देवकी प्रबलता, मत्माधु-प्रशंसा, मृत्युको अनिवार्यता, तपाराधना, ज्ञानागधना, स्त्रीनिन्दा, समीचीन गुरु, साधुओंकी असाधुता, मनोनिग्रह, कषायविजय, यथार्थतपस्वी, प्रभृति विपयोपर पद्म-रचना प्रस्तुत की गयी है। इस ग्रन्यको शैली भतृहरिके 'शतकत्रय' के समान है। कबिने इस सूक्ति-काव्यमें अन्योक्तियोंका आधार ग्रहण कर विषयको सरस बनाया हैहे चन्द्रमः किमिति लाञ्छभवानभूस्त्वं तद्वान् भवः किमिति तन्मय एव नाभूः । किं ज्योत्स्नया मलमल तब घोषयन्त्या स्वर्भानुबन्ननु तथा सति नासि लक्ष्यः ।।
हे चन्द्रमा ! तु मलिनतारूप दोषसे सहित क्यों हुआ? यदि तुझे मलिन हो होना था, तो पूर्णरूपस उस मलिन स्वरूपको क्यों नहीं प्राप्त हमा? तेरी उम मलिनताके अतिशयको प्रकट करनेवाली चाँदनीसे क्या लाभ ? यदि तू सर्वथा मलिन हुआ होसा, तो वैसी अवस्थामें राहुके समान सदोष तो दिखलाई पड़ता।
१. आत्मानुशासन, जन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, पद्य १४० ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ११