Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
पंचम अध्याय
११
आदि का भेद नहीं होते हुये भी तन्तु प्रादिक उपज रहे देखे जाते हैं, अतः उस भेदसे उन तन्तु प्रादिकों का उपजना नहीं बन पाता है, अतः स्वरूपासिद्ध नहीं तो भागासिद्ध दोष अवश्य लागू होगा ।
ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उस प्रथम ही प्रथम के तन्तु आदि का भी कपास (रुई) की बनी हुई पौनी का भेद होजाने से ही उपजना सिद्ध है । धुनी हुयी रूई के पिण्डों को भेद कर पौनी बनाई जाती है, पुनः चर्खा या तकली द्वारा पौनी को क्रम पूर्वक छिन्न भिन्न कर के सूत बनाया जाता है ।
यथाविधानांचतत्वादीना पटादिमेदादुत्पत्तिरुपलब्धा तथाविधानां न तदभावे प्रतीयते इति नोपालंभः । समर्थयिष्यते च भेदात्परमाण्वादीनामुत्पत्तिः संघाताच्चेति नासिद्धो हेतु:, यतः पुद्गल पर्यायाः पृथिव्यादयो न सिद्धेयुः ।
हां, कार्यकारण भाव का सूक्ष्मरूप से विचार करने पर निर्णीत होजाता है कि जिस प्रकार चपटे या ठरहे तन्तु प्रादिकों की उत्पत्ति पट प्रादिके भेद से ही होरही देखी गयी है उस प्रकार के हर कार्य भूत तन्तुओं आदि की उत्पत्ति उस पट आदि के भेद हुये बिना नहीं प्रतीत होती है, इस कारण हम जैनों के ऊपर कोई उलाहना या हेत्वाभास नहीं उठाया जा सकता है । सूत्रकार स्वयं भविष्य ग्रन्थ में कहेंगे और मुझ विद्यानन्द स्वामी करके उसका समर्थन किया जावेगा कि परमाणु की या महास्कन्धपूर्वक हुये लघुस्कन्ध आदि की उत्पत्ति भेद से ही होती है तथा लघु, महान् अनेक, पृथ्वी आदि स्कन्धों की उत्पत्ति संघात से हो रही है, इस कारण हम दोनों का हेतु असिद्ध हेत्वाभास नहीं हैं जिससे कि पृथ्वी, जल प्रादिक कार्य पुद्गल द्रव्य के पर्याय नहीं सिद्ध हो सकें अर्थात् पृथ्वी जल, तेज, वायु और मन ये स्वतन्त्र द्रव्य नहीं हैं किन्तु पुद्गल के पर्याय हैं ।
दिशोपि नात्रोपसंख्यानं कार्यमाकाशेऽन्तर्भावात् ततो द्रव्यांतरत्वाप्रसिद्धेः ।
वैशेषिकों ने नौ द्रव्यों में से जीव-भिन्न आठ द्रव्यों का स्वतंत्रतया अजीव द्रव्य स्वीकारकिया है इन में पृथ्वी आदि पांच का पुद्गल पर्यायपना साध दिया गया है । अब दिशा द्रव्य का विचार करते हैं । वैशेषिक की ओर से कोई कह रहा है कि स्वतंत्र ग्रजीव द्रव्य के प्रतिपादक इस सूत्र में दिशा द्रव्य का भी निरूपण करना चाहिये था, सूत्रकार भूल जांय तो वार्तिककार द्वारा दिशा द्रव्य का भी उपसंख्यान करना चाहिये । आचार्य कहते हैं कि यह ठीक नहीं क्योंकि उसका आकाश में अन्तर्भाव प्रजाता है, अतः दिशा को उस आकाशसे निराले द्रव्यपन की प्रसिद्धि नहीं होपाती है, दिशा आकाशस्वरूप ही है ।
स्यान्मतं पूर्वापरादिप्रत्ययविशेषः पदार्थविशेषहेतुको विशिष्टप्रत्ययत्वात् दंड्यादिप्रत्ययवत्, योऽसौ विशिष्टः पदार्थस्तद्धेतुः सा दिग्द्रव्यं परिशेषादन्यस्य प्रसक्तस्य प्रतिषेधात् ततो द्रव्यांतरमाकाशादिति । तदसत् तद्धेतुत्वेनाकाशस्य प्रतिषेद्ध मशक्ते स्तत्प्रदेशश्रेणिष्वेवादित्योदयादिवशात् प्राच्यादिदिग्व्यवहारप्रसिद्धेः । प्राच्यादिदिक्सम्बंधाच्च मूर्तद्रव्येषु पूर्वापरादिप्रत्ययविशेषोत्पत्तेर्न परस्परापेचया मूर्तद्रव्याण्येव तद्धेतवः । एकतरस्य पूर्वत्वासिद्धावन्यतरस्यापर - स्यारत्वासिद्धेस्तदसिद्धौ चैकतरस्य पूर्वत्वायोगादितरेतराश्रन्वात् उभयासत्वप्रसंगात् ।