Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय अभिन्न माना जा रहा है । इसी प्रकार धर्म, अधर्म आदिकों को पुरुषाद्वैत स्वरूप होने पर तो उन धर्मादिकों के अजीवपन का विरोध प्रावेगा, आत्म-स्वरूप पदार्थ चेतनात्मक होते हैं, अजीव नहीं। ब्रह्माद्वैतवादी ये 'सब ग्राम, बाग, पर्वत, घट, पट, आदिक ब्रह्म-स्वरूप ही हैं',इस सिद्धान्त की व्यवस्था नहीं कर सकते हैं क्योंकि प्रथम अध्याय में "जीवाजीवास्रव", सूत्रका व्याख्यान करते समय पहले अजीव की सिद्धि का विधान किया जा चुका है। प्रत्यक्ष-सिद्ध हो रहे अनेक चेतन, अचेतन, पदार्थों का अपलाप करना उचित नहीं है।
पृथिव्यप्तेजोवायुमनोदिक्कालाकाशभेदरूपताप्यजीवपदार्थस्यायुक्तैव, पृथिव्यप्तेजोमनसां पुद्गलद्रव्यपर्यायवाज्जात्यंतरत्वासिद्धः। पृथिव्यादयः पुद्गलपर्याया एव भेदसंघाताभ्यामुत्सद्यमानत्वात् । ये तु न पुद्गलपर्यायास्ते न तथा दृष्टाः यथाकाशादयः भेदसंघाताभ्यामुत्पद्यमानाश्च पृथिव्यादय इति न ततो जात्यंतरं । विभागसंयोगाभ्यामुत्पद्यमानेन शब्देन व्यभिचार इति चेन्न, तस्यापि पुद्गलपर्यायत्वात् । तदपर्यायत्वे तस्य वहिःकरणवेद्यत्वविरोधात् न च भेदो विभागमानं, स्कंधविदारणस्य भेदशदेनाभिधानात् । नापि सघातः संयोगमात्रं, मृत्पिडादीनां स्कंधपरिणामस्य संघातशब्दवाच्यत्वात् । न च ताभ्यामुत्पद्यमानत्वमपुद्गलपर्यायस्य ज्ञानादेरस्ति येनानैकतिको हेतुः स्यात् ।
वैशेषिक नौ द्रव्यों में से पृथिवी, अप, तेज, वायु, मन, दिक्, काल, आकाश, इन आत्मभिन्न आठ द्रव्यों को अजीव पदार्थ मानते हैं प्राचार्य कहते हैं कि यों अजीव पदार्थ का पृथिवी आदि आठ भेद स्वरूप होना भी युक्तिरहित ही है क्योंकि पृथिवी, जल, तेज, वायु, और मन ये पांच स्वतंत्र द्रव्य नहीं हैं, पुद्गल द्रव्य की विशेष पर्याय होने से इनको न्यारी न्यारी जाति का द्रव्यपना प्रसिद्ध है, इसमें युक्ति यह है कि पृथिवी आदिक (पक्ष) पुद्गल के विकार नहीं हैं (साध्य) भेद और संघात से उपज रहे होने से (हेतु) जो पुद्गल के पर्याय नहीं हैं वे तो तिस प्रकार भेद और संघात से उपज रहे नहीं देखे जा रहे हैं जैसे कि आकाश. आत्मा, आदिक पदार्थ हैं (व्यतिरेकटान्त) भेद और संघात से उपजरहे पृथ्वो आदिक हैं उपनय इस कारण वे पुद्गल की पर्याय ही हैं, उस पुद्गल से न्यारी जाति के तत्वान्तर नहीं हैं (निगमन,।
इस अनुमान में कोई वैशेषिक पण्डित अनैकान्तिक हेत्वाभास उठाता है कि कणादप्रणीत वैशेषिक दर्शन का सूत्र है “संयोगादिविभागाच्च शब्द-निष्पत्तिः" बांस को चीरते समय या कपड़े को फाड़ते समय विभाग से शब्द उपजता है तथा ताली, घन्टा, घड़ियाल बजाते समय या लोहा कांसा आदि को पीटते समय संयोग से शब्द उत्पन्न होता है, शब्द तो गुण है, पुद्गल का पर्याय नहीं है, अतः विभाग और संयोगसे उपजरहे शब्द करके तुम जैनों के हेतु का व्यभिचार हुा । हेतु रहगया साध्य नहीं रहा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योकि वह शब्द भी पुद्गलसे उपादेय हो रहा पुद्गल की पर्याय है । यदि उस शब्द को उस पुद्गल की पर्याय नहीं माना जावेगा तो बहिरंग श्रोत्र इन्द्रिय करके उस शब्द के जानने योग्यपन का विरोध हो जावेगा। स्पर्शन प्रादि पांच बहिरंग इन्द्रियों करके पुलपर्याय ही जाने जाते हैं अर्थाद-फोनोग्राफ के तवा या चूड़ी पर पौद्गलिक शब्द हो जमाया जा सकता है, टेलीग्राम या टेलीफान में पौद्गलिक शब्द ही सद्गलिक बिजली करके