Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
किन्हीं आचार्यों के मतानुसार गति पूर्वक स्थिति परिणामवाले जीव और पुद्गल ही यहां ग्रहण करने योग्य माने गये हैं । आकाश की निरुक्ति यों है कि जिसमें सम्पूर्ण द्रव्य युगपत् अवकाश पाते रहते हैं अथवा स्वयं आकाश भी जिसमें अवगाह पाजाता है, अत: वह अत्यन्त परोक्ष पदार्थ अाकाश है। तथा तीनों कालों में पर जाना या गल जाना होते रहनेसे ये पूदगल हैं। इस प्रकार धर्म आदि चार शब्दों की निरुक्ति प्रतिपक्ष यानी विपक्ष में नहीं प्रवर्तती है, इस कारण निरुक्ति द्वारा प्राप्त हुआ अर्थ ही व्यभिचार दोष से रहित होरहा विशेषलक्षण सिद्ध हो जाता है।
__यहां यह कहना है कि उदासीन कारण, प्रेरक कारण, और उपादानकारण इनकी शक्तियों में न्यूनता या अधिकता की पर्यालोचना करना व्यर्थ है, सभी अनन्त शक्तियों को धारते हैं।
कालस्याजीवत्वेनोपसंख्यानमहि कर्तव्यमिति चेन्न, तस्याग्रे वक्ष्यमाणत्वात् । ततो धर्माधर्माकाशपुद्गलाः कालश्चेति पंचैवाजीवपदार्थाः प्रतिपादिता भवति । तेन प्रधान. मेवाजीवपदार्थो धर्मादीनामशेषाणामजीवानां प्रधानरूपत्वादिति न सिद्धं तेषां पृथगुपलब्धः ।
यहां किसी प्रतिवादी का आक्षेप है कि काल द्रव्य का भी इस सूत्र में अजीवपन करके कथन करना चाहिये अन्यथा सूत्रकार की त्रुटि समझी जावेगी, सूत्रकार की भूल होजाने पर वात्तिककार को उचित है कि वे उस क्षति को पूरा करने के लिये नवीन वात्तिक वना देवें ।
ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि स्वयं ग्रन्थकार “कालश्च" इस सूत्र द्वारा इस काल को आगे ग्रन्थ में अजीव स्वरूप कहनेवाले हैं तिस कारण पांचवे अध्यायका पूरा प्रकरण होजाने पर "धर्म अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल ये पांचोंही द्रव्य अजीव पदार्थ समझा दियेगये होजाते हैं और वैसा होजाने से सांख्यों का यह मन्तव्य सिद्ध नहीं हो पाता है कि एक प्रधान (प्रकृति) ही अजीव पदार्थ है क्योंकि धर्मादिक सम्पूर्ण अजीव प्रधान स्वरूप ही हैं। बात यह है कि उन धर्म, अधर्म आदिकों की न्यारी न्यारी उपलब्धि होरही है, अतः विरुद्ध होरहे धर्मादिक पांच द्रव्य भला एक प्रकृति रूप कथमपि नहीं हो सकते हैं।
प्रधानाद्व ते दृष्टेन स्वयमिष्टेन च वाधसद्भावात् । नहि प्रधानमेकमुपलभामहे अन्तर्वहिश्च भेदानामुपलब्धेः । न चैषा प्रांतभेदोपलब्धिर्वाधकाभावात् । प्रधानातग्राहकमनुमानं वाधकमिति चेन, तस्य तदभेदे तद्वदसिद्धत्वात्तत्साधकत्वाभावाद् भेदोपलब्धिवाधकन्वायोगात् । ततो भेदे तसिद्धिप्रसंगात् । पराभ्युपगमादनुमान तत्साधकंभेदोपलब्धेश्च वाधकमिति चेन्न, पराभ्युपगमस्याप्रमाणत्वात् । तत्प्रमाणत्वे भेदसिद्ध वश्यंभावात् । ततः प्रधाना
ते निर्वाध दृष्टविरोधः। तथेष्टेन च महदादिविकारप्रतिपादकागमेन तद्वाधोस्ति, तस्याविद्योपकन्पितत्वे प्रधाना तसिद्धिरपि ततो न स्यात्, न च प्रत्यक्षानुमानागमागोचरस्यापि प्रधानस्य स्वतः प्रकाशमचेतनत्वादिति न तद् पता धर्मादीनां ।
दूसरी बात यह है कि प्रात्म-भिन्न सम्पूर्ण चर, अचर, पदार्थों को एक प्रधान-अद्वैत स्वरूप मानने पर तुम सांख्यों के यहां स्वयं दृष्ट और इष्ट प्रमाणों से वाधायें उपस्थित हो जावेंगी। देखिये