Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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पृष्ठसंख्य
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वहुत्वैश्व
सूत्र पृष्ठसंख्या सूत्र
पृष्ठसंख्या | सूत्र सचित्तशीतसंवृत्ताः सेतरा मिश्राश्च. पपादस्थानविकल्पतः साध्याः उ ११७४ | संमृच्छेनगर्भोपपादा जन्म कशस्तद्योनयः
उ ७०४ सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जरा- संसारिणत्रसस्थावराः सगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजय
बालतपांसि देवस्य
उ ५१२ संसारिणो मुक्ताश्च
स्तेनप्रयोगतदाहदादानविरुद्धराज्यातिचारित्रः सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य
क्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकसत्संख्याक्षेत्रर्शनकालांतरभावाल्पसर्वस्य
व्यवहाराः
उ ७४० पू २०० | सानत्कुमारमाहेद्रयोः सप्त पू११३१ |
खीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणसदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुसामायिकछेदोपस्थानापरिहारविशुद्धि
वृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारल्यागाः पंच उ ६४५ न्मत्तवत् पू ४३७ सूक्ष्मसापराययथास्यातमिति चारित्रं उ १०६६
स्निग्धरूक्षत्वाबंधः
उ ४०६ सदसवेद्य उ ८१८ सारस्वतादित्यवह्नवरुणर्गदतोयतुषिता
स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सद्व्यलक्षणं उ ३६२ व्यावाधारिष्टाश्च
सागरोपमत्रिपल्योपमार्धहीनमिताः पू ११३० स द्विविधोऽष्टचतुर्भेद
स आस्रवः
उ ४५४
स्थितिप्रभावसुखा तिलेश्याविशुद्धींदिसद्वद्यशुभागुर्नामगोत्राणि पुण्यं ६१० सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च उ २७६
यावधिविषयतोऽधिकाः पू १०८६ सप्ततिर्मोहनीयस्य सूक्ष्मसापरायछास्थवीतरागयोश्चतुर्दश उ १०४६
स्पर्शरसगंधवर्णवंतः पुद्गलाः समनस्काऽमनस्काः
| सोऽनंतसमयः
उ ४३३
स्पर्शरसगंधवर्णशब्दास्तदाः सम्यक्त्वं च सौधर्मशानयोः सागरोपमेऽधिके पू ११३१
स्पर्शनरसनाघ्राणचक्षुः श्रोत्राणि पू ६५५ सम्यक्त्वचारित्रे सौधर्मेशानसानत्कुमारमाहेंद्रब्रह्मब्रह्मो
स्वभावमार्दवं च सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः -
त्तरलांतवकापिष्टशुक्रमहाशुक्रशतारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः पू १२ | सहस्रारष्वानतप्राणतयोरारणाच्युत- हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनं उ सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानंतवियोजक
योर्नवसुधेयकेपु विजयवैजयंतजयंता- हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशांतमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंपराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च पू१०४६ | व्रत
उ ६२६ ख्येयगुणनिजंग
संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक्चतुर्थ्या पू ८१० | हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममया. पू स यथानाम
उ ८९८
| संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलाना उ १२५ | हिंसान्तस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमसंयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिगलेश्यो
संझिनः समनस्काः पू ६८०' विरतदेशविरतयोः
उ ११३२
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