Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
स्वरूप-सम्बोधन पर अपनी टीका को परिशीलन में प्रवचन-शैली में प्रस्तुत करने के बाद उन्होंने चाहा कि प्रकाशन के पूर्व कुछ विद्वान् उनके सान्निध्य में कृति का वाचन-आलोडन कर लें और इस प्रसंग की चर्चा डॉ. श्रेयांस जी से हुई, डॉ. श्रेयांस जी ने टोड़ी-फतेहपुर में हम-सब विद्वानों की ओर से हामी भर दी, जिसके परिणाम स्वरूप हम-सब डॉ. शीतलचन्द्र जी जयपुर, डॉ. श्रेयांस कुमार जी बड़ौत व श्री आनन्द कुमार जी वाराणसी तथा मैं (वृषभ प्रसाद जैन) टोड़ी-फतेहपुर में पहली वाचना के लिए उपस्थित हुए, वाचना का क्रम प्रातः, मध्याह्न और अपराह्न में प्रति-दिन आचार्य-श्री के सान्निध्य में चलता था, इसप्रकार पहली वाचना में हम लोगों ने 12 श्लोकों को पूरा किया, दूसरी वाचना टीकमगढ़ पंचकल्याणक के उत्तरार्द्ध में हुई, जिसमें अवशिष्ट को पूरा किया गया। वाचना के दौरान शास्त्र-चर्चा-आनंद का पक्ष यह था कि हम-सब जैसे-जैसे वाचना में लीन होते-जाते, वैसे-वैसे हम-सब श्लोकार्थ के भीतर पहुँचकर अध्यात्म-रस का पान करने लग जाते थे और उसमें आचार्य-श्री की टिप्पणी और-सराबोर कर देती थी। ___वाचना के बाद प्रकाशन की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गयी, जिसमें मुझे पाण्डुलिपि की जटिलताओं से और दो-चार होना पड़ा। इसका कारण यह रहा कि वाचना के लिए हमें मूल पांडुलिपि मिली नहीं थी। मूल पांडुलिपि से किसी कातिब ने उसकी प्रति बनायी और फिर उसकी भी कुछ नहीं पढ़ी जा सकने वाली-सी फोटोस्टेट-प्रतियाँ हम-सब को वाचना के लिए मिलीं, जिसमें कई स्तर पर अशुद्धियों पर अशुद्धियाँ जुड़ती गई। यद्यपि संशोधन की दृष्टि से लगभग पूरी कृति का दस बार पारायण हुआ, फिर भी मैं नहीं जानता कि पूरा का पूरा पाठ पूरी तरह त्रुटि-हीन हो पाया हो। हाँ, मैं यह जरूर कह सकता हूँ कि उसका प्रयास हमने जरूर किया है। कई सहायक भी इस कार्य में जुड़े, पर वे कार्य-समाप्ति तक विभिन्न विवशताओं के कारण साथ-साथ न रह सके। उधर आयोजकों की बाजार से दौड़कर 2 मीटर कपड़ा खरीदकर लाने-जैसी जल्दी आदि-आदि। .... पर मुझे लगता है कि ग्रन्थप्रकाशन का कार्य दो मीटर कपड़ा खरीदने-जैसा नहीं है, या बिजली के बटन दबाने पर परिणाम-दिखने-जैसा भी नहीं है।
मैं टीका-भाषा से गुजरा, तो मुझे लगा कि हिंदी वर्तनी व व्याकरण के वर्तमान नियम पर्याप्त नहीं हैं, जिसके फल-स्वरूप सम्पादन की प्रक्रिया को समृद्ध करने के लिए वर्तनी व व्याकरण के कई नियम भी विकसित करने पड़े, क्योंकि उस तरह के नियम पहले से हिन्दी वर्तनी-व्याकरण में मौजूद नहीं हैं, जैसे- "तो-फिर" को हमने