Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 19
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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पर चल भी दे, द्रव्य-भेष भी धारण कर ले, द्रव्य-साधना में चर्या करते हुए समय निकल जाएगा, आयु भी पूर्ण हो जाएगी, परन्तु जो तत्त्वानुभूति होनी चाहिए, वही नहीं हो, सारा जीवन एक अलौकिक परमानन्द से रहित निकल जाता है, स्वानुभूति को नहीं जानने वाला सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता होने पर भी अज्ञानी है, वह कैसा ज्ञानी?... जो जानने वाले को ही नहीं जानता। जगत् में सम्पूर्ण तत्त्वों को जानने की बात करने वाला अज्ञ दिखता है, क्योंकि जगत् का ज्ञाता क्या क्षयोपशम ज्ञानी परोक्ष ज्ञान से जान सकता है?... परोक्ष ज्ञान की प्रवृत्ति द्रव्यों की कुछ पर्यायों में होती है, समस्त विश्व-ज्ञाता केवली भगवन्त होते हैं। केवली की वाणी को यथार्थ समझने वाला तत्त्व-ज्ञानी जीव तत्त्व की समीचीन स्थिति का ज्ञाता होता है और लोक एवं परमार्थ व्यवस्था जानकर माध्यस्थ हो जाता है, जगत् के पर-पंच से तटस्थ दशा को प्राप्त होता है, न किसी के प्रति राग-भाव, न द्वेष-भाव; लोग नाना चर्चाएँ करें, तब भी वह ज्ञानी शान्तचित्त से स्वरूप के बोध में डूबकर बोधि-समाधि-स्वात्मोपलब्धि में लीन रहता है, न सुख में हर्षभाव, न दुख में विषाद, जो भी हर्ष-विषाद के निमित्त दिखते हैं, उन्हें वह पर-भाव समझकर उदास रहता है, जितने भी पर-द्रव्य हैं, उनके प्रमाता बनना, क्योंकि प्रमेय हैं, पर उनके कर्ता-भोक्ता नहीं बनना।
ज्ञानी ज्ञाता-दृष्टा तो होता है, पर राग-द्वेष का कर्त्ता नहीं होता, शुभ द्रव्य हो अथवा अशुभ द्रव्य हो, इष्ट हो अथवा अनिष्ट हो, सभी के प्रति ज्ञाता-दृष्टा-भाव बनाना, आत्म-सुख का सागर तेरे अन्दर स्फुटित हो जाएगा, -इसमें संशय नहीं है। अतः ग्रन्थकर्ता के अंतःकरण को समझो, आचार्य-प्रवर अंतरंग में बैठकर स्व-संवेदन के साथ तत्त्वोपदेश कर रहे हैं, अकलंकता की प्राप्ति के लिए। हेय और उपादेय तत्त्वों को जानकर अपने से भिन्न हेय-तत्त्वों से आलम्बन रहित होकर उपादेय-भूत ग्रहण करने योग्य अपने स्वरूप में आलम्बन-सहित हो जाओ, यानी पर-भावों से भिन्न निजात्म-तत्त्व में लीन रहो।।१६।।
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विशुद्ध-वचन
* बात करते हैं योगी सकारण..... और भोगी अकारण....|
* नहीं बनते जितेन्द्रिय इन्द्रियों के छेदन-भेदन से बल्कि बनते मन के दमन से......... |