Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 24
हैं, यह बहुत बड़ी तत्त्व की भूल है। जब तक भाव- श्रुत-रूप परिणति नहीं बन रही है, तब-तक संसार की हानि रंच मात्र भी नहीं हो रही । पुण्य बन्ध का साधन तो है, द्रव्य-श्रुत स्वर्गादि-वैभव तो दिला सकता है, परन्तु मनीषियो! पाप-पुण्य दोनों से आत्मा को पृथक् करने वाला भाव श्रुत ही है । लोकालोक को बतलाने वाला है द्रव्य - श्रुत, परन्तु परमार्थ - भूत आत्म- लोक का निर्विकल्प अवलोकन कराने वाला है भाव-श्रुत। जब-तक बन्ध - दशा का स्थान है, तब-तक ज्ञानियो ! निश्चय-बोध नहीं है । सहज-भाव से समझना, भ्रमित नहीं हो जाना, परमार्थ-नय के विषय को परमार्थ- दृष्टि से ही समझना, सम्पूर्ण विषय निश्चय -नय-प्रधान हैं, या फिर यों कहें कि सम्पूर्ण विषय भूतार्थ है। भव्यो! आँख बन्द कर निज आत्मा के अवलोकन में आँख खोलोधन्य हैं वे परम-योगी, जिन्होंने परम रहस्य का अवलोकन निज-भाव से कर लिया । ज्ञानियो! परम आकिञ्चन धर्म का रहस्य योगी - गम्य है, राग-भोग में फँसे गृहस्थों को इस विषय का श्रद्धान एवं ज्ञान करना चाहिए, विषयों का राग आत्मानन्द का वेदन नहीं होने देता, इसमें संशय करने को स्थान नहीं है । ध्रुव, अखण्ड, चित्-प्रकाशक भगवान्-आत्मा का अनुभव पर संवेदी -भाव नहीं है, स्व-संवेदी -भाव ही ध्रुव शुद्धात्मा का स्वभाव है, - ऐसा जिनोपदेश है। आचार्य भगवन् कुन्दकुन्ददेव ने समयसार में ध्रुव ज्ञाता के स्वरूप को बहुत ही सुंदर शैली में प्ररूपित किया है। आत्मानुभव ही ज्ञानानुभव है, ज्ञानानुभव ही आत्मानुभव है, ज्ञान - मात्र का ही वेदन करे, तो शुद्ध ज्ञान है; पर ज्ञेयों का ज्ञान में आना ही ज्ञान की अशुद्ध - अनुभूति कहलाएगी .... पर से सम्बन्ध जोड़ना, सम्बन्धों में जुड़ना, संयोगों में लीन रहना, गृह-परिग्रह, शिष्य - शिष्याओं के सम्बन्ध में अनुरक्त रहना, स्व-प्रज्ञा का अहंभाव, ग्रन्थ-निर्ग्रन्थों में अनुराग के स्थान पर राग स्थापित करना, - यह सब अशुद्ध- ज्ञान की धारा है, शुद्ध-ज्ञान तो एक मात्र ज्ञायक-भाव है। शुद्ध-तत्त्व का स्वरूप समझो, राग-द्वेष की धारा से निज भगवान् की रक्षा करो, पर सम्बन्धों एवं सम्मानों में कुशलता नहीं है।
जैसा परमागम में कहा है, तद्-रूप निज ध्रुव आत्मा को देखो । यथाजो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठे अणण्णमविसेसं । अपदेससुत्तमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं । ।
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- समयसार, गा. 15
अर्थात् जो आत्मा को अबद्ध, स्पष्ट, अनन्य, अविशेष तथा नियत और असंयुक्त देखता है, वह उपदेश-सूत्र के भीतर अवस्थित द्रव्य - श्रुत और भाव - श्रुत रूप संपूर्ण जिनशासन को देखता है ।