Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha

View full book text
Previous | Next

Page 294
________________ 2341 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन परिशिष्ट-2 मैथुन भाव (पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद) ये नो-कषाय कहे जाते हैं, क्योंकि ये कषायवत् व्यक्त नहीं होते। इन सब को ही राग व द्वेष में गर्भित किया जा सकता है। विषयों के प्रति आसक्ति की अपेक्षा से कषायों के चार भेद हैं- अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन; -इन चारों के क्रोधादि के भेद से चार-चार भेद करके कुल 16 भेद हुए। -जै.सि. को., भा. 2, पृ. 33 कार्य-कारण- न्याय-शास्त्र में कार्य-कारणभाव को अन्वय-व्यतिरेक-गम्य कहा गया है अर्थात् जो जिसके होने पर होता है और नहीं होने पर नहीं होता है, या जिसके बिना जो नियम से नहीं होता, वह उसका कारण व दूसरा कार्य होता है। इस कारण के मुख्य भेद दो हैं- उपादान-कारण और निमित्त-कारण। -जै.सि.को., पृ. 48 काल- 1. किसी क्षेत्र में स्थित पदार्थ की काल-मर्यादा का निश्चय करना काल नाम का अनुयोग-द्वार है। इसके द्वारा पदार्थों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन किया जाता है। 2. जो सभी द्रव्यों के परिणमन में सहकारी है, उसे काल-द्रव्य कहते हैं। यह दो प्रकार का है- निश्चयकाल और व्यवहार-काल । -जै.द. पारि. को., पृ. 71 कुन्दकुन्द (आचाय)-दिगम्बर जैन आम्नाय में आपका नाम गणधर-देव के पश्चात् बड़े आदर से लिया जाता है। आपके अनेक नाम प्रसिद्ध हैं तथा आपके जीवन को लेकर कुछ ऋद्धियों व चामत्कारिक घटनाओं का भी उल्लेख मिलता है। आपकी निम्न रचनाएँ प्रसिद्ध हैं- षट्खंडागम के प्रथम तीन खंडों पर परिकर्म नाम की टीका (वर्तमान में अनुपलब्ध), समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, अठ्ठपाहुड़ पंचास्तिकाय, रयणसार इत्यादि 84 पाहुड़, दशभक्ति, कुरलकाव्य । विद्वानों के अनुसार आपका काल ई.सं. 127-179 है। -जै.सि. को., भा. 2, पृ. 126 कुश्रुत- मिथ्यादर्शन के उदय के साथ होने वाला श्रुतज्ञान ही कु-श्रुत-ज्ञान है। -जैन.सि. को., भा. 4, पृ. 59 केवल-ज्ञान- जो सकल चराचर जगत् को दर्पण में झलकते प्रतिबिंब की तरह एक-साथ स्पष्ट जानता है, वह केवल-ज्ञान है। यह ज्ञान चार घातिया कर्मों के नष्ट होने पर आत्मा में उत्पन्न होता है। -जै.द. पारि. को., पृ. 76 केवल-दर्शन- समस्त आवरण के क्षय होने से जो सर्व चराचर जगत् का सामान्य प्रतिभास होता है, उसे केवल-दर्शन कहते हैं। केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन क्रमशः न होकर एक-साथ ही होते हैं। -जै.द. पारि. को., पृ. 76 केवली- केवल-ज्ञान होने के पश्चात् वह साधक केवली कहलाता है। इसी का नाम अर्हन्त या जीवन्मुक्त भी है। ये भी दो प्रकार के होते हैं- तीर्थकर व सामान्य केवली। उपरोक्त सभी केवलियों की दो अवस्थाएँ होती हैं- स-योग और अ-योग। -जै.सि. को., भा. 2, पृ. 155

Loading...

Page Navigation
1 ... 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324