Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
परिशिष्ट-2
क्षय-क्षय का अर्थ है नष्ट होना। जैसेफिटकरी आदि मिलाने पर स्वच्छ हुए जल को दूसरे साफ बर्तन में बदल देने पर कीचड़ का अत्यन्त अभाव हो जाता है, ऐसे ही कर्मों का आत्मा से सर्वथा दूर हो जाना क्षय है।
- -जै.द.पा.को., पृ. 79 क्षयोपशम- जैसे कोदों को धोने से कुछ कोदों की मादकता नष्ट हो जाती है, कुछ बनी रहती है, इसीतरह परिणामों की निर्मलता से कर्मों के एक-देश का क्षय और एक-देश का उपशम होना क्षयोपशम कहलाता है।
-जै.द.पा.को., पृ. 79
क्षायिक-ज्ञान- ज्ञानावरण-कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाले अनन्त-ज्ञान को क्षायिक-ज्ञान कहते हैं; इसे केवलज्ञान भी कहते हैं।
-जै.द.पा. को., पृ. 80 क्षायोपशमिक-ज्ञान- मतिज्ञानावरणादि अपने-अपने आवरणी कर्मों को क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय इत्यादि -इन चार ज्ञानों को क्षायोपशमिक-ज्ञान कहते हैं।
-जै.द.पा.को., पृ. 8 क्षेत्र- वर्तमान-काल संबंधी निवास का नाम क्षेत्र है। किस गुणस्थान या मार्गणा स्थान वाले जीव इस लोक में कहाँ और कितने भाग में पाए जाते हैं? -यह जानकारी क्षेत्र के द्वारा मिलती है।
-जै.द.पा.को., पृ. 82
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धम्मो वत्थु-सहावो, खमादि-भावो य दस-विहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ।।
- कार्तिकेय अनुप्रेक्षा, 478 वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं; दस प्रकार के क्षमा आदि भावों को धर्म कहते हैं; रत्नत्रय को धर्म कहते हैं और जीवों की रक्षा को धर्म कहते हैं।