Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
परिशिष्ट-2
रविषेण आचार्य- ज्ञान-संघ की गुर्वावली के अनुसार आप लक्ष्मणसेन के शिष्य थे, वि. 705 में आपने पद्यपुराण की रचना की थी।
-जै. सि. को.. भा. 3, पृ. 406 राग- इष्ट पदार्थों में प्रीति या हर्ष-रूप परिणाम होना राग है, राग दो प्रकार का है- प्रशस्तराग और अप्रशस्त राग।
-जै.द. पा.को.. पृ. 205
जैसे 'सीप में यह चाँदी है, -इस प्रकार का ज्ञान होना।
___-जै. सि. को., खं. 3, पृ. 563 विपाक- कर्म के फल को विपाक कहते हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के निमित्त से उत्पन्न हुआ कर्म का विविध प्रकार का पाक अर्थात् फल ही विपाक कहलाता है। इसी को अनुभव भी कहते
ल लघुत्व- शरीर का वायु से भी हलका होना इसका नाम लघुत्व-ऋद्धि है।
-जै. लक्ष., भा. 3, पृ. 965 लोक- जिसमें जीव आदि छह द्रव्य पाये जाते हैं, उसे लोक अथवा लोकाकाश कहते हैं, इससे बाहर सर्वत्र अनन्त अलोकाकाश है।
-जै.द.पा.को., पृ. 210
__ -जै.द. पा.. को., पृ. 220 विवक्षा- वक्ता की इच्छा को विवक्षा कहते हैं। प्रश्न-कर्ता के प्रश्न से ही प्रतिपादन करने वाले की विपक्षा होती है।
-जै.द.पा.को., पृ. 221 वृषभदेवअ- वृषभ अर्थात् प्रधान। ब- 'वृष' नाम धर्म का है। उसके द्वारा
शोभा को प्राप्त होता है या प्रगट होता है, इसलिए वह वृषभ कहलाता है अर्थात् आदि नाम के भगवान् ।
-जै. सि. को.. भा.३, पृ. 589 वृषभसेन- ऋषभदेव (वृषभदेव) के पुत्र भरत के छोटे भाई। पुरिभताल नगर के राजा । भगवान् ऋषभदेव के प्रथम गणधर हुए अन्त में मोक्ष सिधारे।
-जै. सि. को., भा. ३, पृ. 589 वेदनीय कर्म- जस कर्म के उदय से जीव सुख-दुःख का वेदन अर्थात् अनुभव करता है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। यह दो प्रकार का है-साता-वेदनीय व असातावेदनीय।
-जै.द.पा.को., पृ. 225
वर्तना- द्रव्य में प्रति-समय होने वाले परिवर्तन में जो सहकारी है, उसे वर्तना कहते हैं। यह काल-द्रव्य का उपकार है।
-जै.द. पा.को., पृ. 216 वर्द्धमान् स्वामी- हर प्रकार से बृद्ध ज्ञान जिसके होता है, ऐसे भगवान् वर्द्धमान हैं। भगवान् महावीर का अपर नाम भी वर्द्धमान् है।
-जै.सि.को., भा. ३, पृ. 534 विपर्यास (विपर्यय)अ- विपर्यय का अर्थ मिथ्या है। ब- विपरीत एक पक्ष का निश्चय करने
वाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं।