Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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परिशिष्ट-2
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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मोक्ष- समस्त कर्मों से रहित आत्मा की परम-विशुद्ध-अवस्था का नाम मोक्ष है।
-जै.द.पा. को., पृ. 201 मोक्ष-मार्ग- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र -इन तीनों की एकता ही मोक्ष-मार्ग है, निश्चय और व्यवहार के भेद से मोक्ष-मार्ग दो प्रकार का है।
-जै.द. पा.को., पृ. 201 मोहअ- अज्ञान या अविवेक को मोह कहा
जाता है। क्रोधादि कषायों और हास्यादि नो-कषायों के समूह को मोह कहते हैं।
-जै.लक्ष., भा. 3, पृ. 939 मोहनीय-कर्म- जो मिथ्यात्वादि-स्वरूप होकर प्राणी को मोहित किया करता है, उसे मोहनीय-कर्म कहते हैं।
-जै. लक्ष., भा. 3, पृ. 940 जिस कर्म के उदय से जीव हित-अहित के विवेक से रहित होता है, उसे मोहनीय-कर्म कहते हैं, मोहनीय-कर्म दो प्रकार का हैदर्शन-मोहनीय और चारित्र-मोहनीय।
-जै. द. पा. को., पृ. 202
युक्ति -(तक) अ- साध्य और साधन के अ-विना-भाव
रूप सम्बन्ध के अज्ञान की निवृत्ति-करना-रूप स्वार्थ-निश्चयस्वरूप अव्यवहित फल को उत्पन्न करने में जो प्रकृष्ट उपकारक है,
उसे तर्क कहते हैंब- ईहा, ऊहा, तर्क, परीक्षा, विचारणा
और जिज्ञासा, -ये-सब शब्द एक अर्थ वाले हैं।
-जै. सि. को., भा. 2, पृ. 364 योग- मन, वचन और काय के द्वारा होने वाले आत्म-प्रदेशों के परिस्पंदन को योग कहते हैं, योग तीन प्रकार का है- मनोयोग, वचन-योग और काय-योग; ये तीनों योग शुभ व अशुभ दोनों रूप होते हैं।
- -जै.द. पा. को., पृ. 204
रत्नकरंड-श्रावकाचार- आचार्य समन्तभद्र (ईस्वी शती 2) द्वारा रचित संस्कृत-छन्दबद्ध इस ग्रन्थ में 7 परिच्छेद और 150 श्लोक हैं; श्रावकाचार-विषयक यह प्रथम-ग्रन्थ है। इस पर निम्न टीकाएँ उपलब्ध हैं-आ. प्रभाचन्द्र (ई. 1185-1223) कृत संस्कृत-टीका तथा पं. सदासुख (ई. 1793-1863) कृत भाषा-टीका।
-जै. सि. को., भा. 3, पृ. 204 रयणसार-आचार्य कुन्दकुन्द (ई. 127-179) कृत आचरण-विषयक 167 प्राकृत-गाथाओं में निबद्ध ग्रन्थ।
-जै. सि. को., भा. 3, पृ. 206
यथाख्यात-चारित्र- समस्त मोहनीय कर्म के उपशान्त या क्षीण हो जाने पर जो स्वाभाविक वीतराग-चारित्र उत्पन्न होता है उसे यथाख्यात-चारित्र कहते हैं।
-जै.द. पा.. को., पृ. 203