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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
परिशिष्ट-2
मैथुन भाव (पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद) ये नो-कषाय कहे जाते हैं, क्योंकि ये कषायवत् व्यक्त नहीं होते। इन सब को ही राग व द्वेष में गर्भित किया जा सकता है। विषयों के प्रति आसक्ति की अपेक्षा से कषायों के चार भेद हैं- अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन; -इन चारों के क्रोधादि के भेद से चार-चार भेद करके कुल 16 भेद हुए।
-जै.सि. को., भा. 2, पृ. 33 कार्य-कारण- न्याय-शास्त्र में कार्य-कारणभाव को अन्वय-व्यतिरेक-गम्य कहा गया है अर्थात् जो जिसके होने पर होता है और नहीं होने पर नहीं होता है, या जिसके बिना जो नियम से नहीं होता, वह उसका कारण व दूसरा कार्य होता है। इस कारण के मुख्य भेद दो हैं- उपादान-कारण और निमित्त-कारण।
-जै.सि.को., पृ. 48 काल- 1. किसी क्षेत्र में स्थित पदार्थ की काल-मर्यादा का निश्चय करना काल नाम का अनुयोग-द्वार है। इसके द्वारा पदार्थों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन किया जाता है। 2. जो सभी द्रव्यों के परिणमन में सहकारी है, उसे काल-द्रव्य कहते हैं। यह दो प्रकार का है- निश्चयकाल और व्यवहार-काल ।
-जै.द. पारि. को., पृ. 71 कुन्दकुन्द (आचाय)-दिगम्बर जैन आम्नाय में आपका नाम गणधर-देव के पश्चात् बड़े आदर से लिया जाता है। आपके अनेक नाम प्रसिद्ध हैं तथा आपके जीवन को
लेकर कुछ ऋद्धियों व चामत्कारिक घटनाओं का भी उल्लेख मिलता है। आपकी निम्न रचनाएँ प्रसिद्ध हैं- षट्खंडागम के प्रथम तीन खंडों पर परिकर्म नाम की टीका (वर्तमान में अनुपलब्ध), समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, अठ्ठपाहुड़ पंचास्तिकाय, रयणसार इत्यादि 84 पाहुड़, दशभक्ति, कुरलकाव्य । विद्वानों के अनुसार आपका काल ई.सं. 127-179 है।
-जै.सि. को., भा. 2, पृ. 126 कुश्रुत- मिथ्यादर्शन के उदय के साथ होने वाला श्रुतज्ञान ही कु-श्रुत-ज्ञान है।
-जैन.सि. को., भा. 4, पृ. 59 केवल-ज्ञान- जो सकल चराचर जगत् को दर्पण में झलकते प्रतिबिंब की तरह एक-साथ स्पष्ट जानता है, वह केवल-ज्ञान है। यह ज्ञान चार घातिया कर्मों के नष्ट होने पर आत्मा में उत्पन्न होता है।
-जै.द. पारि. को., पृ. 76 केवल-दर्शन- समस्त आवरण के क्षय होने से जो सर्व चराचर जगत् का सामान्य प्रतिभास होता है, उसे केवल-दर्शन कहते हैं। केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन क्रमशः न होकर एक-साथ ही होते हैं।
-जै.द. पारि. को., पृ. 76 केवली- केवल-ज्ञान होने के पश्चात् वह साधक केवली कहलाता है। इसी का नाम अर्हन्त या जीवन्मुक्त भी है। ये भी दो प्रकार के होते हैं- तीर्थकर व सामान्य केवली। उपरोक्त सभी केवलियों की दो अवस्थाएँ होती हैं- स-योग और अ-योग।
-जै.सि. को., भा. 2, पृ. 155