Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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परिशिष्ट-2
स्वरूप- संबोधन - परिशीलन
छ
छत्र चूड़ामणि- आचार्य वादीभसिंह सूरि नं. 2 (ई. 1015 – 1150) द्वारा रचित 635 संस्कृत श्लोक - प्रमाण एक ग्रन्थ ।
- जै. सि. को., भा. 2, पृ. 305 छह द्रव्य -सत् द्रव्य का लक्षण है। सत् अस्तित्व का वाची है। सत् उत्पाद व्यय और ध्रौव्य से युक्त रहता है । द्रव्य को गुण और पर्याय वाला भी कहा गया है। उत्पाद और व्यय दोनों क्षण-क्षयी हैं, विनाशीक हैं। ध्रौव्य स्थिरता का द्योतक है, अतः उत्पाद और व्यय पर्याय हैं, ध्रौव्य गुण है ।... द्रव्य छह प्रकार के हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ।
- जै. त. वि., पृ. 225-229 छयालीस गुण - 34 अतिशय + 8 प्रातिहार्य + 4 अनन्तचतुष्टय | तीर्थकरों के जन्म आदि के समय जो अलौकिक या असाधारण सुखद घटनाएँ होती हैं, उन्हें अतिशय कहते हैं
(क) जन्म के दस अतिशय - 1. स्वेद
5.
ता, 2. निर्मल शरीर, 3. दूध की तरह श्वेत रक्त का होना, 4. अतिशय रूपवान् शरीर, सुगन्धित तन, 6. प्रथम उत्तम संस्थान, 7. प्रथम उत्तम संहनन, 8. 1008 शुभ लक्षण, 9. अतुल बल, 10. हित- मित- प्रिय-वाणी । घातिकर्म के क्षय से उत्पन्न गयारह अतिशय - 1. चार सौ कोस में सुभिक्षता, 2. गगन-गमन, 3. अ-प्राणि- वध, 4. भोज का अभाव,
(ख)
(घ)
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(ग) देव-कृत तेरह अतिशय - 1. पारस्परिक मैत्री, 2. दशों दिशाओं में निर्मलता, 3. निर्मल आकाश, 4. वृक्षों में सब ऋतुओं के फल-फूल आना, 5. दर्पणवत् निर्मल पृथ्वी, 6. मन्द व सुगन्धित हवा का चलना, 7. भूमि का कंटक - रहित होना, 8. आकाश में जय-ध्वनि, 9. गन्धोदक - वृष्टि, 10. सभी जीवों को परमानन्द की अनुभूति, 11. स्वर्ण-कमलों की रचना, 12. धर्म - चक्र का आगे चलना, 13. अष्ट मंगलद्रव्यों का प्रभु के आगे चलना । प्रातिहार्य - तीर्थकर परमात्मा को जब केवलज्ञान हो जाता है, तब चारों निकाय के देव उनकी सेवा में निरन्तर आते रहते हैं। देशना के समय सुवर्ण-रजत एवं मणि-रत्न से युक्त तीन पीठिका वाले समवसरण में अष्ट महाप्रातिहार्य होते हैं, जो कैवल्योत्पत्ति के बाद सतत साथ रहते हैं, ये इसप्रकार हैं- 1. अशोक - वृक्ष, 2. सिंहासन, 3. भा-मंडल, 4. तीन छत्र, 5. चमर, 6. सुर - पुष्प - वृष्टि, 7. दुन्दुभि, 8. दिव्य-ध्वनि ।
(ङ)
5. उपसर्ग का अभाव, 6. चतुर्मुखता, 7. सर्वविद्येश्वरता, 8. छाया नहीं पड़ना, 9. निर्निमेष दृष्टि, 10. नख और केश नहीं बढ़ना, 11. सर्वार्धमागधी भाषा ।
अनन्त चतुष्टय - तीर्थकर भगवन्त निम्नांकित अनन्त चतुष्टयों से