Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha

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Page 305
________________ परिशिष्ट-2 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 1245 हुए जो जीव के स्वभाव-भूत भाव हैं, वे पारिणामिक-भाव कहलाते हैं। ये तीन प्रकार के हैं- जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व। -जै.द. पा. को., पृ. 155 पुद्गल- जो पूरण और गलत स्वभाव वाला है, वह पुद्गल है अथवा जिसमें रूप, रस, गंध व स्पर्श -ये चारों गुण पाए जाते हैं, उसे पुद्गल कहते हैं। पुद्गल के दो भेद हैं- स्कंध व परमाणु। -जै.द. पा. को., पृ. 156 पुण्य- जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होती है, उसे पुण्य कहते हैं अथवा जीव के दया, दान, पूजा आदि-रूप शुभ-परिणाम को पुण्य कहते हैं। -जै.द. पा. को., पृ. 157 पूज्यपाद आचार्य- आप कर्नाटक देशस्थ कोले नामक ग्राम के माधव भट्ट नामक एक ब्राह्मण के पुत्र थे। माता का नाम श्रीदेवी था। सर्प के मुँह में फंसे हुए मेंढ़क को देखकर आपको वैराग्य आया था। आपके सम्बन्ध में अनेक चामत्कारिक दन्त कथाएँ प्रचलित हैं। आपके द्वारा रचित कृतियाँ निम्न हैं-जैनेन्द्र-व्याकरण, मुग्धबोधव्याकरण, शब्दावतार, छन्दः-शास्त्र, वैद्य-सार, सवार्थ सिद्धि सार्थ, इष्टोपदेश, समाधि-शतक, सार-संग्रह, जैनाभिषेक, सिद्ध-भक्ति व शान्त्यष्टक। -जै. सि. को., भा. 3, पृ. 82 पूर्व चर-हेतु-जो साध्य के साथ अविनाभाविपने से निश्चित हो अर्थात् साध्य के विना न रहे, उसको हेतु कहते हैं। पूर्वचर-हेतु- जैसे-एक मुहूर्त के बाद शकट का उदय होगा, क्योंकि कृत्तिका का उदय अन्यथा नहीं हो सकता। यहाँ कृत्तिका का उदय पूर्वचर-हेतु है। -जै. सि. को., भा. 4, पृ. 540 एवं 541 पृच्छना- 1. संशय को दूर करने तथा निश्चित अर्थ के दृढ़ करने के लिए जो दूसरे विद्वान् से प्रश्न किया जाता है, इसे पृच्छन या पृच्छना (पृच्छना) कहा जाता है। -जै. लक्ष., भा. 3, पृ. 734 स्वाध्याय के भेद-वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश यह पांच प्रकार का स्वाध्याय है। पृच्छना = शास्त्रों के अर्थ को किसी दूसरे से पूछना। -जै.सि. को., भा. 4, पृ. 524 प्राग्भाव- 1. कार्य के उत्पन्न होने से पूर्व जो उसका अभाव रहता है, उसे प्राग्भाव कहते हैं। 2. जिसकी निवृत्ति होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है, वह प्राग्भाव कहलाता है। -जै. लक्ष., भा. 3. पृ. 787 प्रत्यक्ष- विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। वह दो प्रकार का है- सांव्यवहारिक व पारमार्थिक। इन्द्रिय-ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है और इन्द्रिय आदि पर-पदार्थों से निरपेक्ष केवल आत्मा में उत्पन्न होने वाला ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है। पारमापर्थिक प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है- सकल व विकल। _ -जै. सि. को., भा. 3, पृ. 122 प्रत्यभिज्ञान- 1. वही यह हैं -इस प्रकार के आकार-वाले ज्ञान को अथवा यह उसी प्रकार का है -इसप्रकार के आकार-वाले

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