Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha

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Page 295
________________ परिशिष्ट-2 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन ग गणधर - जो तीर्थंकर के पाद-मूल में समस्त ऋद्धियाँ प्राप्त करके भगवान् की दिव्य-ध्वनि को धारण करने में समर्थ हैं और लोक-कल्याण के लिए इस वाणी का सार द्वादशांग श्रुत के रूप में जगत् को प्रदान करते हैं, ऐसे महामुनीश्वर गणधर कहलाते हैं । प्राप्त ऋद्धियों के बल से गणधर आहार, नीहार, निद्रा, आलस्य आदि से सर्वथा मुक्त हैं, अतः चौबीस घन्टे निरंतर भगवान् की वाणी हृदयंगम करने में संलग्न रहते हैं। ये तद्भव मोक्षगामी होते हैं । - जै. द. पारि. को., पृ. 86 गुण- जो एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य से पृथक् करता है, उसे गुण कहते हैं। गुण सदा द्रव्य के आश्रित रहते हैं अर्थात् द्रव्य की प्रत्येक अवस्था में उसके साथ रहते हैं। प्रत्येक द्रव्य में अनेक गुण होते हैं। कुछ साधारण या सामान्य गुण होते हैं और कुछ असाधारण या विशेष गुण । अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्व आदि - ये सभी द्रव्यों में पाये जाने वाले सामान्य गुण हैं। चेतना, ज्ञान, दर्शन आदि जीव के विशेष गुण । रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि पुद्गल के विशेष गुण हैं। गति-हेतुत्व, स्थिति-हेतुत्व, वर्तना-हेतुत्व और अवगाहनत्व – ये क्रमशः धर्म, अधर्म, काल और आकश के विशेष गुण हैं । —जै.द.पा.को., पृ. 88 गुणस्थान - मोह और योग के माध्यम से जीव के परिणामों में होने वाले उतार-चढ़ाव को गुणस्थान कहते हैं । जीवों के परिणाम /235 यद्यपि अनन्त हैं, परन्तु इन सभी को चौदह श्रेणियों में विभाजित किया गया है। चौदह स्थानों के नाम इस प्रकार हैं- मिथ्यादृष्टि, सासादन, सम्यग् मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्त-संयत, अ-प्रमत्त-संयत, अ-पूर्व-करण-शुद्धि-संयत, अ- निवृत्ति-करण-शुद्धि-संयत, सूक्ष्मसाम्पराय -शुद्धि-संयत, उपशान्त-कषाय वीतराग छद्मस्थ, क्षीण-कषाय वीतरागछद्मस्थ, संयोग केवली जिन और अयोग- केवली जिन । - जै. द. पा. को., पृ. 89 गोत्र-कर्म- मिथ्यात्व आदि कारणों से जीव से सम्बद्ध जो पुद्गल-स्कन्ध उच्च और नीच कुलों में उत्पन्न कराने में निमित्त हैं, उनका नाम गोत्र-कर्म है। उनके दो भेद हैं- उच्च गोत्र कर्म और नीच गोत्र कर्म । - जै. सि. को., पृ. 107 गौतम गणधर - श्रुतावतार की गुर्वावली के अनुसार भगवान् महावीर के पश्चात् प्रथम केवली हुए। आप भगवान् महावीर के गणधर थे। आपका पूर्व नाम इन्द्रभूति था । आपका समय ई.पू. 527 से 515 माना है। - जै. सि. को, भाग 2, पृ. 255 ज्ञ ज्ञानार्णव- आचार्य शुभचन्द्र (ई 1003 - 1168) द्वारा संस्कृत श्लोकों में रचित एक आध्यात्मिक व ध्यान-विषयक ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ पर आचार्य श्रुतसागर (ई. 1275-1533 ) ने तत्त्व - मय- प्रकाशिका और

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