Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha

View full book text
Previous | Next

Page 281
________________ श्लो . : 26 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 1221 यह महान् ग्रंथ जन-जन की समझ का विषय बने, -इस आग्रह को ध्यान में रखकर यह परिशीलन प्रारंभ किया था। न्याय-अध्यात्म का युगपद् दर्शन होता है इस ग्रंथराज में, विषय को सरल भाषा में लिखने का पूर्ण प्रयास किया गया है, न्याय-नय के गूढ़-रहस्यों को भी स्पष्ट किया गया है, सन्दर्भित-विषयों को भी स्पर्श किया गया है, सुधी-जन ग्रन्थ का स्वाध्याय करके अवश्य ही आत्म-बोध को प्राप्त करेंगे। परिशीलन वसुधा पर परिलक्षित रहे और जन-जन का कल्याण करे। जिन-शासन जयवन्त हो, जिन-वाणी जयवन्त हो। वीर निर्वाण सम्वत् 2535 | विक्रम संवत् 2065 | पौष कृष्ण षष्ठी, बुधवार-वासरे। मघा-नक्षत्रे। मध्याहनकाले । दि. 17-12-2008 श्रमणगिरी (सोनागिर)मध्ये। श्री चन्द्रप्रभ जिनालय में शांति-विधान के अवसर पर यह स्वरूप-सम्बोधन-परिशीलन ग्रन्थ पूर्ण हुआ। ।। इति शुभम् भूयात्।। विशुद्ध-वचन * अरे आत्मन ! तू तो ज्ञान-दर्शन-स्वभावी तो कैसे रमता पर में पर-द्रव्यों में...? * होता नहीं धन से धर्म..... वह तो होता परिणामों से..... धन से धर्म होता-होता गर मेरे दोस्त! तो होते सारे धनिक धर्मात्मा.....! * हर रूप वाले को पहले से मिला होता है स्वरूप..... पर फिर भी मगन रहता रूप के बदलने में और भटक जाता स्वरूप से...! * अधिक हैं इस जग में दूसरों के सुख से दुःखिया पर कम हैं यहाँ अपने दुःख से दुःखिया...!

Loading...

Page Navigation
1 ... 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324