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श्लो . : 26
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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यह महान् ग्रंथ जन-जन की समझ का विषय बने, -इस आग्रह को ध्यान में रखकर यह परिशीलन प्रारंभ किया था।
न्याय-अध्यात्म का युगपद् दर्शन होता है इस ग्रंथराज में, विषय को सरल भाषा में लिखने का पूर्ण प्रयास किया गया है, न्याय-नय के गूढ़-रहस्यों को भी स्पष्ट किया गया है, सन्दर्भित-विषयों को भी स्पर्श किया गया है, सुधी-जन ग्रन्थ का स्वाध्याय करके अवश्य ही आत्म-बोध को प्राप्त करेंगे। परिशीलन वसुधा पर परिलक्षित रहे और जन-जन का कल्याण करे। जिन-शासन जयवन्त हो, जिन-वाणी जयवन्त हो।
वीर निर्वाण सम्वत् 2535 | विक्रम संवत् 2065 | पौष कृष्ण षष्ठी, बुधवार-वासरे। मघा-नक्षत्रे। मध्याहनकाले । दि. 17-12-2008 श्रमणगिरी (सोनागिर)मध्ये। श्री चन्द्रप्रभ जिनालय में शांति-विधान के अवसर पर यह स्वरूप-सम्बोधन-परिशीलन ग्रन्थ पूर्ण हुआ।
।। इति शुभम् भूयात्।।
विशुद्ध-वचन
* अरे आत्मन ! तू तो ज्ञान-दर्शन-स्वभावी तो कैसे रमता पर में पर-द्रव्यों में...?
* होता नहीं धन से धर्म..... वह तो होता परिणामों से..... धन से धर्म होता-होता गर मेरे दोस्त! तो होते सारे धनिक धर्मात्मा.....!
* हर रूप वाले को पहले से मिला होता है स्वरूप..... पर फिर भी मगन रहता रूप के बदलने में और भटक जाता स्वरूप से...!
* अधिक हैं इस जग में दूसरों के सुख से दुःखिया पर कम हैं यहाँ अपने दुःख से दुःखिया...!